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१, ९-२, ७८.] चूलियाए वाणसमुक्त्तिणे णाम
[ ११३ तिरिक्खगदि एइंदिय-बादर-पज्जत्त-आदाउज्जोवाणमेक्कदरसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिहिस्स ॥ ७७ ॥
कुदो ? अण्णेसिमेइंदियजादीए बंधाभावा । ___ तत्थ इमं पढमपणुवीसाए ठाणं,तिरिक्खगदी एइंदियजादी ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरं हुंडसंठाणं वण्ण-गंध-रस-फासं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुब्बी अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-थावरं बादरसुहुमाणमेक्कदरं पज्जत्तं पत्तेग-साधारणसरीराणमेक्कदरं थिराथिराणमेक्कदरं सुहासुहाणमेक्कदरं दुहव-अणादेज्जंजसकित्ति-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामं । एदासिं पढमपणुवीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव टाणं ॥ ७८ ॥
___ अगुरुअलहुअत्तं णाम सव्वजीवाणं पारिणामियमत्थि, सिद्धसु खीणासेसकम्मेसु वि तस्सुवलंभा । तदो अगुरुलहुअकम्मस्स फलाभावा तस्साभावो इदि ? एत्थ
वह छब्बीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान एकेन्द्रियजाति, बादर, प्रत्येकशरीर, आतप और उद्योत, इन दोनोंमेंसे किसी एकसे संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है ।। ७७॥
क्योंकि, अन्य गुणस्थानवर्ती जीवोंके एकेन्द्रियजातिका बन्ध नहीं होता है।
नामकर्मके तिर्यग्गतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह प्रथम पच्चीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान है-तिर्यग्गति', एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर', कार्मणशरीर', हुंडसंस्थान', वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघु, उपघात', परघात", उच्छास, स्थावर", बादर और सूक्ष्म इन दोनों से कोई एक", पर्याप्त', प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर इन दोनों में से कोई एक", स्थिर और अस्थिर इन दोनोंमेंसे कोई एक", शुभ और अशुभ इन दोनोंमेंसे कोई एक", दुर्भग अनादेय, यश-कीर्ति और अयश कीर्ति इन दोनोंमेंसे कोई एक और निर्माणनामकर्म"। इन प्रथम पच्चीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ७८॥
शंका-अगुरुलघुत्व नामका गुण सर्व जीवोंके पारिणामिक है, क्योंकि, अशेष कर्मोंसे रहित सिद्धोंमें भी उसका सद्भाव पाया जाता है। इसलिए अगुरुलघु नामकर्मका कोई फल न होनेसे उसका अभाव मानना चाहिए ?
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