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________________ ११४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-२, ७९. परिहारो उच्चदे- होज्ज एसो दोसो, जदि अगुरुअलहुअं जीवविवाई होदि । किंतु एदं पोग्गलविवाई, अणंताणंतपोग्गलेहि गरुवपासेहि आरद्धस्स सरीरस्स अगुरुअलहुअत्तुप्पायणादो। अण्णहा गरुअसरीरेणोदृद्धो जीवो उद्धेदु पि ण सकेज । ण च एवं, सरीरस्स अगुरु-अलहुअत्ताणमणुवलंभा । सेसं सुगमं । एत्थ भंगा वत्तीसं (३२) । तिरिक्खगदिं एइंदिय-पज्जत्त-बादर-सुहुमाणमेक्कदरं संजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिहिस्स ॥ ७९॥ कुदो ? उवरिमाणमेइंदियबादर-सुहुमाणं बंधाभावा । सेसं सुगमं । तत्थ इमं विदियपणुवीसाए ढाणं, तिरिक्खगदी वेइंदियतीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियचदुण्हं जादीणमेक्कदरं ओरालिय-तेजाकम्मइयसरीरं हुंडसंठाणं ओरालियसरीरअंगोवंगं असंपत्तसेवट्टसरीर समाधान—यहांपर उक्त शंकाका परिहार कहते हैं- यह उपर्युक्त दोष प्राप्त होता, यदि अगुरुलघु नामकर्म जीवविपाकी होता। किन्तु यह कर्म पुद्गलविपाकी है, क्योंकि, गुरुस्पर्शवाले अनन्तानन्त पुद्गल-वर्गणाओंके द्वारा आरब्ध शरीरके अगुरुलघुताकी उत्पत्ति होती है । यदि ऐसा न माना जाय, तो गुरु-भारवाले शरीरसे संयुक्त यह जीव उठनेके लिए भी नहीं समर्थ होगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, शरीरके केवल हलकापन और केवल भारीपन पाया नहीं जाता। शेष सूत्रार्थ सुगम है । यहांपर वादर, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ और यश कीर्ति, इन पांच युगलोंके विकल्पसे (२x२x२x२x२=३२) बत्तीस भंग होते हैं। वह प्रथम पच्चीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान एकेन्द्रियजाति, पर्याप्त, बादर और सूक्ष्म, इन दोनोंमेंसे किसी एकसे संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है ॥ ७९ ॥ क्योंकि, उपरिम गुणस्थानवी जीवोंके एकेन्द्रियजाति, वादर और सूक्ष्म, इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है । शेष सूत्रार्थ सुगम है । नामकर्मके तिर्यग्गतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह द्वितीय पच्चीस प्रकृति रूप बन्धस्थान है— तिर्यग्गति', द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति और पंचेन्द्रियजाति, इन चारों जातियोंमेंसे कोई एक, औदारिकशरीर', तैजसशरीर', कार्मणशरीर', हुंडसंस्थान', औदारिकशरीर-अंगोपांग', असंप्राप्तासृपाटिकाशरीरसंहनन', १ प्रतिषु · वीस (२०)' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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