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________________ १, ९-२, ७५. ] चूलियाए द्वाणसमुक्कित्तणे णामं [ १११ तत्थ इमं विदिय एगूणतीसार हाणं । जधा, विदियत्तीसाए भंगो । वरि उज्जीवं वज्ज । एदासिं विदीए ऊतीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव द्वाणं ॥ ७२ ॥ सुगममेदमणंतरमेव उत्तत्थत्तादो । तिरिक्खगदिं पंचिंदिय- पज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स तं सासणसम्मादिट्टिस्स ॥ ७३ ॥ सुगममेदं सामित्तत्तं । तत्थ इमं तदियऊणतीसाए ठाणं । जधा तदियतीसाए भंगो । वरि उज्जोवं वज्ज । एदासिं तदियऊणतीसाए पयडीणमेव कम्हि चैव द्वाणं ॥ ७४ ॥ एदं वि सुगमं । तिरिक्खगदिं विगलिंदिय- पज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिट्टिस्स ॥ ७५ ॥ नामकर्मके तिर्यग्गतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानों में यह द्वितीय उनतीस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थान है । वह किस प्रकार है ? वह द्वितीय तीस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थानके समान प्रकृति-भंगवाला है । विशेषता यह है कि यहां उद्योतप्रकृतिको छोड़ देना चाहिए। इन द्वितीय उनतीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ७२ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, अनन्तर ही इसका अर्थ कहा जा चुका है । वह द्वितीय उनतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान पंचेन्द्रिय और पर्याप्त नामकर्म से संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके होता है || ७३ ॥ यह स्वामित्वसम्बन्धी सूत्र सुगम है । नामकर्मके तिर्यग्गतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानों में यह तृतीय उनतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान है । वह किस प्रकार है ? वह तृतीय तीस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थानके समान प्रकृति-भंगवाला है। विशेषता यह है कि यहां उद्योतप्रकृतिको छोड़ देना चाहिए | इन तृतीय उनतसि प्रकृतियों का एक ही भावमें अवस्थान है || ७४ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । वह तृतीय उनतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान विकलेन्द्रिय और पर्याप्त नामकर्मसे संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले मिध्यादृष्टि जीवके होता है ॥ ७५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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