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________________ ११०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ९-२, ६९. तिरिक्खगदि विगलिंदिय-पज्जत्त-उज्जोवसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिट्ठिस्स ॥ ६९॥ सुगममेदं । तत्थ इमं पढमऊणतीसाए ठाणं। जधा, पढमतीसाए भंगो । णवरि उज्जोवं वज्ज । एदासिं पढमऊणतीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव ट्ठाणं ॥ ७० ॥ ऊणतीसाए त्ति उत्ते एगूणतीसाए त्ति घेत्तव्यं, दोआदीहि ऊणतीसाए गहणं ण होदि। कुदो ? रूढिवलभावादो । जहा इदि उत्ते तं जहा इदि सिस्सपुच्छावयण त्ति घेत्तव्वं । सेसं सुगमं । तिरिक्खगदिं पंचिंदिय-पज्जत्तसंजुत्तं (बंधमाणस्स तं) मिच्छादिहिस्स ॥ ७१ ॥ एदं पुव्वुत्तबंधट्ठाणसामित्तसुत्तं सुगममिदि ण एत्थ किंचि उच्चदे । वह तृतीय तीस प्रकृतिरूप बंधस्थान विकलेन्द्रिय, पर्याप्त और उद्योत नामकर्मसे संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है । ६९ ॥ यह सूत्र सुगम है। नामकर्मके तिर्यग्गतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमेंसे यह प्रथम उनतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान है । वह किस प्रकार है ? वह प्रथम तीस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थानके समान प्रकृति-भंगवाला है। विशेषता यह है कि यहां उद्योतप्रकृतिको छोड़ देना चाहिए । इन प्रथम उनतीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ७० ॥ 'उनतीस ' ऐसा कहनेपर ‘एक कम तीस' यह अर्थ ग्रहण करना चाहिए, दो आदिसे कम तीसका ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि, रूढ़िके बलसे ऐसा ही अर्थ लिया जाता है। 'यथा' ऐसा पद कहनेपर 'वह किस प्रकार है ? ' इस प्रकार शिष्यका पृच्छावचन यह अर्थ ग्रहण करना चाहिए । शेष सूत्रार्थ सुगम है। वह प्रथम उनतीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान पंचेन्द्रिय और पर्याप्त नामकर्मसे संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है ।। ७१ ॥ यह पहले कहे हुये बन्धस्थानके स्वामित्वका सूत्र सुगम है, अतएव यहांपर कुछ भी नहीं कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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