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१०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ९-२, ६६. कुदो ? हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाण सासणे बंधाभावा ।
तत्थ इमं विदियत्तीसाए टाणं, तिरिक्खगदी पंचिंदियजादी ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरं हुंडसंठाणं वज पंचण्हं संठाणाणमेक्कदरं ओरालियसरीरअंगोवंगं असंपत्तसेवट्टसंघडणं वज्ज पंचण्हं संघडणाणमेक्कदरं वण्ण-गंध-रस-फासं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वी अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सास-उज्जो दोण्हं विहायगदीणमेक्कदरं तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरं थिराथिराणमेकदरं सुहासुहाणमेक्कदरं सुहव-दुहवाणमेक्कदरं सुस्सर-दुस्सराणमेक्कदरं आदेज्ज-अणादेज्जाणमेक्कदरं जसकित्ति-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामं । एदासिं विदियत्तीसाए पयडीणं एक्कम्हि चेव हाणं ॥६६॥
पुबिल्लतीसट्ठाणादो कधमेदस्स भेदो ? हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरनहीं होता है, क्योंकि, सासादन तथा उससे ऊपर किसी भी गुणस्थानमें हुंडसंस्थान और असंप्राप्तामृपाटिकासंहनन, इन प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
नामकर्मके तिर्यग्गतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानों में यह द्वितीय तीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान है- तिर्यग्गति', पंचेन्द्रियजाति', औदारिकशरीर', तैजसशरीर', कार्मणशरीर, हुंडसंस्थानको छोड़कर शेष पांचों संस्थानों से कोई एक, औदारिकशरीरअंगोपांग', असंप्राप्तासृपाटिकासंहननको छोड़कर शेष पांचों संहननोंमेंसे कोई एक, वर्ण, गन्ध", रस', स्पर्श', तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघु', उपघात, परघात", उच्छास", उद्योत', दोनों विहायोगतियोंमेंसे कोई एक", त्रस", बादर', पर्याप्त, प्रत्येकशरीर", स्थिर और अस्थिर इन दोनोंमेंसे कोई एक', शुभ और अशुभ इन दोनोंमेंसे कोई एक , सुभग, और दुर्भग, इन दोनोंमेंसे कोई एक , सुस्वर और दुस्वर इन दोनों से कोई एक", आदेय और अनादेय इन दोनों से कोई एक", यशःकीर्ति
और अयशःकीर्ति इन दोनोंमेंसे कोई एक , तथा निर्माणनामकर्म । इन द्वितीय तीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ६६ ॥
शंका-पूर्वोक्त तीस प्रकृतिवाले वन्धस्थानसे इस तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थानका भेद किस प्रकार है ?
समाधान हुंडसंस्थान और असंप्राप्तासपाटिकाशरीरसंहनन, इन दो
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