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१, ९-२, ६५.] चूलियाए ट्ठाणसमुक्त्तिणे णाम
[ १०५ आदेज्ज-अणादेज्जाणमेक्कदरं जसकित्ति-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामं च । एदासिं पढमतीसाए पयडीणं एक्कम्हि चेव ट्ठाणं ॥६४॥
एदासिं उत्तासेसपयडीणं एक्कम्हि चेव तीससंखाणम्मि एदासिमक्कमेण बंधजोग्गपरिणामे वा हाणमवट्ठाणं होदि । सेसं सुगमं । एत्थ भंगपमाणं ४६०८' ।
तिरिक्खगदिं पंचिंदिय-पज्जत्त-उज्जोवसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिट्ठिस्स ॥ ६५॥
__ तं मिच्छादिहिस्सेत्ति एवं चेव वत्तव्यं, णेदरं, पयडिणिद्देसेणेव तदवगमादो ? ण एस दोसो, मंदबुद्धिसिस्साणुग्गहटुं तदुप्पत्तीदो । एवं बंधट्ठाणमुवरिमाणं णत्थि। दुःस्वर इन दोनोंमेंसे कोई एक', आदेय और अनादेय इन दोनोंमेंसे कोई एक', यश कीर्ति और अयशःकीर्ति इन दोनोंमेंसे कोई एक और निर्माण नामकर्म । इन प्रथम तीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ६४॥
___ इन सूत्रोक्त समस्त प्रकृतियोंका एक ही तीस-संख्यामें, अथवा इनके युगपत् बंधनेयोग्य परिणाममें स्थान अर्थात् अवस्थान होता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। यहांपर भंगोंका प्रमाण चार हजार छह सौ आठ (४६०८) है।
विशेषार्थ-यहांपर छह संस्थान, छह संहनन, तथा विहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यश-कीर्ति, इन सात युगलोंके विकल्पसे ६४६४२४२४२४२४२४२४२८४६०८ छयालीस सौ आठ भंग होते हैं।
वह प्रथम तीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान, पंचेन्द्रियजाति, पर्याप्त और उद्योत नामकर्मसे संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टिके होता है ॥६५॥
शंका-'वह बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि जीवके होता है' इतना वाक्य ही सूत्रमें कहना चाहिए, अन्य (शेष ) नहीं, क्योंकि, प्रकृतियोंके नाम-निर्देशसे ही उसका ज्ञान हो जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, मन्द बुद्धि शिष्योंके अनुग्रहके लिए उसकी रचना हुई है। ____ यह बन्धस्थान उपरिम, अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानवी जीवोंके
१ संठाणे संहडणे विहाय जुम्मे य चरिमछजुम्मे । अविरुद्वेकदरादो बंधहाणेसु भंगा हु॥५३२॥ सणिस्स मणुस्सस्स य ओघेकदरं तु मिच्छभंगा हु । लादालसयं अट्ठ य xxx ॥ गो. क. ५३६.
२ प्रतिषु 'मुवरिमा णत्थि' इति पाठः।
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