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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-२, ६३. तं बंधट्ठाणं कस्स होदि त्ति पुच्छिदे मिच्छादिहिस्स होदि । कुदो ? उपरिमगुणट्ठाणेसु णिरयगदीए बंधाभावा ।
तिरिक्खगदिणामाए पंच हाणाणि, तीसाए एगूणतीसाए छव्वीसाए पणुवीसाए तेवीसाए ठाणं चेदि ॥ ६३ ॥
तिरिक्खगदिणामाए पयडीए त्ति संबंधो कायव्यो । एदं संगहणयसुत्तं, एदम्मि उवरि उच्चमाणसव्वत्थसंभवादो।
तत्थ इमं पढमत्तीसाए ठाणं, तिरिक्खगदी पंचिंदियजादी ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरं छण्हं संढाणाणमेक्कदरं ओरालियसरीरअंगोवंगं छण्हं संघडणाणमेक्कदरं वण्ण-गंध-रस-फासं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुब्बी अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-उज्जोवं दोण्हं विहायगदीणमेकदरं तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरं थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेक्कदरं सुहव-दुहवाणमेक्कदरं सुस्सर-दुस्सराणमेक्कदरं
वह बन्धस्थान किसके होता है, ऐसा पूछनेपर उत्तर दिया जाता है कि वह बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि जीवके होता है, क्योंकि, उपरिम गुणस्थानोंमें नरकगतिके बन्धका अभाव है।
तिर्यग्गतिनामकर्मके पांच बन्धस्थान हैं- तीस प्रकृतिसम्बन्धी, उनतीस प्रकृतिसम्बन्धी, छब्बीस प्रकृतिसम्बन्धी, पच्चीस प्रकृतिसम्बन्धी और तेवीस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थान ॥ ६३ ॥
यहां 'तिर्यग्गतिनामा नामकर्मकी प्रकृतिके' इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए। यह संग्रहनयाश्रित सूत्र है, क्योंकि, आगे कहे जानेवाले सर्व अर्थ इसमें संभव हैं।
नामकर्मके तिर्यग्गतिसम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानों में यह प्रथम तीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान है-तिर्यग्गति', पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर', तैजसशरीर', कार्मणशरीर, छहों संस्थानोंमेंसे कोई एक, औदारिकशरीर-अंगोपांग, छहों संहननोंमेंसे कोई एक', वर्ण, गन्ध', रस", स्पर्श', तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघु", उपघात , परघात", उच्छ्वास", उद्योत', दोनों विहायोगतियोंमेंसे कोई एक", बस, बादर', पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर और अस्थिर इन दोनोंमेंसे कोई एक", शुभ और अशुभ इन दोनोंमेंसे कोई एक", सुभग और दुर्भग इन दोनोंमेंसे कोई एक , सुस्वर और
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