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१, ९--२, ६२.] चूलियाए ढाणसमुक्त्तिणे णाम
[१०३ जीवम्हि उत्तिदंसणादो ण विरोहो त्ति चे, होदु संतं पडि विरोहाभावो, इच्छिज्जमाणत्तादो । ण बंधेण अविरोहो, तधोवदेसाभावा । ण च संतम्मि विरोहाभावं दहण बंधम्हि वि तदभावो वोत्तुं सकिज्जइ, बंध-संताणमेयत्ताभावा । णिरयगईए सह जासिमक्कमेण उदओ अत्थि ताओ णिरयगईए सह बंधमागच्छंति त्ति केई भणंति, तण्ण घडदे, थिर-सुहाणं धुवोदयत्तणेण णिरयगदीए सह उदयमागच्छंताणं णिरयगदीए सह बंधप्पसंगादो । ण च एवं, सुहाणमसुहेहि सह बंधाभावा । तदो णिरयगदीए जासिमुदओ णत्थि, एयंतेण तासिं बंधो णत्थि चैव । जासिं पुण उदओ अत्थि, तासिं णिरयगदीए सह केसि पि बंधो' होदि, केसि पि ण होदि त्ति घेत्तव्यं । एवमण्णासिं पि णिरयगदीए बंधेण सह विरुद्धबंधपयडीणं परूवणा कादव्या ।
णिरयगई पंचिंदिय-पज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिट्ठिस्स ॥ ६२॥ है, इसलिए बन्धका विरोध नहीं होना चाहिए ?
समाधान-सत्त्वकी अपेक्षा उक्त प्रकृतियोंके एक साथ रहनेका विरोध भले ही न हो, क्योंकि, वैसा माना गया है। किन्तु बन्धकी अपेक्षा उन प्रकृतियोंके एक साथ रहनेमें विरोधका अभाव नहीं है, अर्थात् विरोध ही है, क्योंकि, उस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है। और सत्त्वमें विरोधका अभाव देखकर बन्धमें भी उनका अभाव नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, बन्ध और सत्त्वमें एकत्वका विरोध है, अर्थात् बन्ध और सत्व ये दोनों एक वस्तु नहीं है।
कितने ही आचार्य यह कहते हैं कि नरकगतिनामक नामकर्मकी प्रकृतिके साथ जिन प्रकृतियोंका युगपत् उदय होता है, वे प्रकृतियां नरकगतिनाम प्रकृतिके साथ बन्धको प्राप्त होती हैं। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, वैसा मानने पर ध्रुव-उदयशील होनेसे नरकगतिनाम प्रकृतिके साथ उदयमें आनेवाले स्थिर और शुभ नामकर्मीका नरकगतिके साथ बन्धका प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, शुभ प्रकृतियोंका अशुभ प्रकृतियोंके साथ बन्धका अभाव है। इसलिए नरकगतिके साथ जिन प्रकृतियोंका उदय नहीं है, एकान्तसे उनका बन्ध नहीं ही होता है। किन्तु जिन प्रकृतियोंका एक साथ उदय होता है, उनका नरकगतिके साथ कितनी ही प्रकृतियोंका बन्ध होता है और कितनी ही प्रकृतियोंका नहीं होता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार अन्य भी नरकगतिके बन्धके साथ विरुद्ध पड़नेवाली बन्ध प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करना चाहिए।
वह अट्ठाईस प्रकृतिरूप बन्धस्थान, पंचेन्द्रियजाति और पर्याप्त नामकर्मसे संयुक्त नरकगतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टिके होता है ॥ ६२ ॥
१ प्रतिषु ' केसिं पबंधो' इति पाठः ।
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