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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,९-२, ६१. ण एस दोसो, एदस्सुवरि सव्वत्थं परूवयंतआइरियवक्खाणादो तदवगमविरोहाभावा । — विसेसरुइसिस्साणुग्गहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
तत्थ इमं अट्ठावीसाए हाणं, णिरयगदी पंचिंदियजादी वेउव्वियतेजा-कम्मइयसरीरं हुंडसंठाणं वेउब्वियसरीरअंगोवंगं वण्ण-गंध-रसफासं णिरयगइपाओग्गाणुपुवी अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सासं अप्पसत्थविहायगई तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुह-दुहवदुस्सर-अणादेज्ज-अजसकित्ति-णिमिणणामं । एदासिं अट्ठावीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ६१ ॥
णिरयगदीए सह एइंदिय-वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियजादीओ किण्ण बज्झंति ? ण, णिरयगइबंधेण सह एदासिं बंधाणं उत्तिविरोहादो । एदेसिं संताणमकमेण एय
समाधान- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, इस सूत्रके ऊपर उसके अन्तर्निहित सर्व अर्थका प्ररूपण करनेवाले आचार्योंके व्याख्यानसे उन अर्थोके जाननेमें कोई विरोध नहीं है।
अब विशेष रुचिवाले शिष्योंके अनुग्रहके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं
नामकर्मके उक्त आठ बन्धस्थानोंमें यह अट्ठाईस प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थान है- नरकगति', पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुंडसंस्थान', वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस", स्पर्श", नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी", अगुरुलघु', उपघात", परघात", उच्छास", अप्रशस्तविहायोगति', वस", बादर", पर्याप्त , प्रत्येकशरीर', आस्थिर', अशुभ", दुर्भग", दुःस्वर", अनादेय", अयश कीर्ति", और निर्माणनाम । इन अट्ठाईस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान
__ शंका-नरकगतिके साथ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जातिनामवाली प्रकृतियां क्यों नहीं बंधती हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, नरकगतिके बन्धके साथ इन द्वीन्द्रियजाति आदि प्रकृतियोंके बंधनका विरोध है ।
शंका-इन प्रकृतियोंके सत्त्वका एक साथ एक जीवमें अवस्थान देखा जाता
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