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१, ९-२, ६०.] चूलियाए ट्ठाणसमुक्कित्तणे णामं
___ कुदो ? उवरिमगुणट्ठाणेसु मणुसाउअबंधपरिणामाभावा । सम्मामिच्छादिट्ठिम्हि' चत्तारि वि आउआणि बंधसरूवेण णत्थि त्ति घेत्तव्यं । कुदो ? तत्थेक्कस्स वि आउअस्स सामित्तपरूवणाभावा ।
जं तं देवाउअं कम्मं बंधमाणस्स ॥ ५८ ॥ सुगममेदं ।
तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिहिस्स वा असंजदसम्मादिहिस्स वा संजदासंजदस्त वा संजदस्त वा ॥ ५९॥
एदं पि सुगमं ।
णामस्स कम्मस्स अट्ठ टाणाणि, एक्कत्तीसाए तीसाए एगूणतीसाए अट्ठवीसाए छब्बीसाए पणुवीसाए तेवीसाए एक्किस्से द्वाणं चेदि ॥६०॥ ___ एवं संगहणयसुत्तं, बीजपदत्तादो । कधमेदम्हादो उवरि उच्चमाणसव्वत्थावगमो ?
क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टिसे ऊपरके गुणस्थानों में मनुष्यायुके बांधने योग्य परिणामोंका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों ही आयुकर्म बन्धस्वरूपसे नहीं है, ऐसा अर्थ जानना चाहिए। इसका कारण यह है कि उस गुणस्थानमें एक भी आयुकर्मके बन्धका स्वामित्व नहीं बतलाया गया है।
जो देवायु कर्म है, उसे बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान होता है ।। ५८ ॥
___ यह सूत्र सुगम है । (यहां संयतसे अभिप्राय अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथम छह भागों तकके संयतोंसे ही है।)
वह देवायुके बन्धरूप एक प्रकृतिवाला स्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ ५९॥
यह सूत्र भी सुगम है।
नामकर्मके आठ बन्धस्थान हैं-- इकतीस प्रकृतिसम्बन्धी, तीस प्रकृतिसम्बन्धी उनतीस प्रकृतिसम्बन्धी अट्ठाईस प्रकृतिसम्बन्धी, छब्बीस प्रकृतिसम्बन्धी, पच्चीस प्रकृतिसम्बन्धी, तेईस प्रकृतिसम्बन्धी और एक प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थान ॥ ६०॥
यह संग्रहनयाश्रित सूत्र है, क्योंकि, वह बीजपदस्वरूप है। शंका-इसके ऊपर कहे जानेवाले सर्व अर्थोका ज्ञान इस सूत्रसे कैसे होता है ? १ प्रतिषु 'सम्मामिच्छादिट्ठीहि ' इति पाठः।
२ तेवीसं पणवीसं छव्वीसं अट्ठवीसमुगतीसं । तीसेक्कतीसमेवं एक्को बंधो दुसेदिम्हि ॥ गो. क. ५२१. तेवीस पंचवीसा छन्वीसा अट्टवीस गुणतीसा। तीसेकतीस एगं पडिग्गहा अट्ठ णामस्स ॥ कम्म प.सं. २४.
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