________________
.१००]
बंधाभावा ।
छक्खंडागमे जीवाणं
तं मिच्छादिट्टिस्स ॥ ५३ ॥
तं बंधट्ठाणं मिच्छादिट्ठिस्स चेत्र होदि, मिच्छत्तोदएण विणा णिरआउअस्स
[ १, ९–२, ५३.
जं तं तिरिक्खाउअं कम्मं बंधमाणस्स ॥ ५४ ॥
एदस्स अत्थो पुत्रं व परूवेदव्वो ।
तं मिच्छादिट्टिस्स वा सासणसम्मादिट्टिस्स वा ॥ ५५ ॥
तं बंधट्टणमेदसिं दोन्हं गुणट्टाणाणं होदि, एदेसु तिरिक्खाउअबंधपाओग्गपरिणामुवलंभा ।
जं तं मणुसाउअं कम्मं बंधमाणस्स ॥ ५६ ॥
सुगममेदं ।
तं मिच्छादिस्सि वा सासणसम्मादिट्टिस्स वा असंजदसम्मादिट्टिस्स वा ॥ ५७ ॥
वह बन्धस्थान मिथ्यादृष्टिके होता है ।। ५३ ॥
वह अर्थात् नारका के बन्धवाला एक प्रकृतिरूप बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि जीवके ही होता है, क्योंकि, मिथ्यात्वकर्मके उदयके विना नारकायुका बन्ध नहीं होता है । जो तिर्यगायु कर्म है, उसके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ५४ ॥
इस सूत्र का अर्थ भी पूर्व सूत्र के समान कहना चाहिए ।
वह तिर्यगायुके बन्धरूप एक प्रकृतिवाला स्थान मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि होता है ॥ ५५ ॥
वह बन्धस्थान इन सूत्रोक्त दोनों गुणस्थानवर्त्ती जीवोंके होता है, क्योंकि, इन दोनों गुणस्थानों में तिर्यगायुके बांधनेयोग्य परिणाम पाए जाते हैं ।
जो मनुष्यायु कर्म है, उसके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ५६ ॥
Jain Education International
यह सूत्र सुगम है |
वह मनुष्यायुके बन्धरूप एक प्रकृतिवाला स्थान मिध्यादृष्टि, सासादनसभ्यट और असंयतसम्यग्दृष्टिके होता है ।। ५७ ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org