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________________ १, ९-२, ५२.] चूलियाए वाणसमुक्त्तिणे आउअं [९९ एदं संगहणयाणुग्गहकारि सुत्तं, उवरि उच्चमाणासैसत्थमवगाहिय अवट्ठाणादो । णिरआउअंतिरिक्खाउअं मणुसाउअं देवाउअं चेदि ॥५१॥ (ण चेदं णिरत्थयं सुत्तं, विस्सरणालुअसिस्ससंभालणद्वत्तादो ।) जं तं णिरयाउअं कम्मं बंधमाणस्स ॥ ५२ ॥ एदस्स 'एक्कम्हि चेव अवट्ठाणं होदि' त्ति अज्झाहारो कायव्यो, अण्णहा सुत्तस्स अकिरियत्तावत्तीदो । कत्थ अवट्ठाणं ? एक्कसंखाए, णिरयाउबंधपाओग्गपरिणामे वा । किमट्ठमेत्थ एक्कम्हि चेव हाणमिदि वेदणीयस्सेव ण परूविदं ? ण एस दोसो, संखं पडुच्च चदुण्हं पयडीणमेक्कम्हि चेव ठाणं होदिः परिणामं पडुच्च आउअस्स कम्मस्स चत्तारि द्वाणाणि होति त्ति जाणावणटुं तहा अउत्तीदो । यह सूत्र संग्रहनयवाले जीवोंका अनुग्रहकारी है, क्योंकि, आगे कहे जानेवाले समस्त अर्थको अवगाहन करके, अर्थात् अपने अन्तर्गत करके, अवस्थित है। नारकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु और देवायु, ये आयुकर्मकी चार प्रकृतियां हैं ॥ ५१ ॥ यह सूत्र निरर्थक नहीं है, क्योंकि, वह विस्मरणशील शिष्योंके स्मरणार्थ बनाया गया है। आयुकर्मकी चार प्रकृतियोंमें जो नारकायु कर्म है, उसके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ५२ ॥ इस सूत्रमें 'एकमें ही अवस्थान होता है' इस वाक्यका अध्याहार करना चाहिए। अन्यथा सूत्रके निष्क्रियताकी आपत्ति प्राप्त होती है। शंका-नारकायुके बन्ध करनेवाले जीवका कहांपर अवस्थान होता है ? समाधान-एक संख्यामें, अथवा नारकायुके बन्धयोग्य परिणाममें उसका अवस्थान होता है। शंका-यहांपर वेदनीय कर्मके समान ‘एकमें ही अवस्थान होता है ' इतना वाक्य आचार्यने सूत्रमें किसलिए नहीं कहा? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, संख्याकी अपेक्षा चारों आयुकर्मकी प्रकृतियोंका एकमें ही अवस्थान होता है। किन्तु परिणामकी अपेक्षा आयुकर्मके चार स्थान होते हैं। यह बतलानेके लिए सूत्र में उक्त प्रकारका वाक्य आचार्य ने नहीं कहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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