SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,९-२, १३. तं संजदस्स ॥४३॥ एवं पि सुगमं । तत्थ इमं दोण्हं ठाणं माणसंजलणं वज ॥ ४४॥ मायासंजलणं लोभसंजलणं, एदासिं दोण्हं पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥४५॥ तं संजदस्स ॥ ४६॥ तत्थ इमं एक्किस्से हाणं मायसंजलणं वज ॥ ४७ ॥ लोभसंजलणं, एदिस्से एक्किस्से पयडीए एक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥४८॥ तं संजदस्स ॥४९॥ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । आउअस्स कम्मस्स चत्तारि पयडीओ ॥५०॥ वह तीन प्रकृतिरूप अष्टम बन्धस्थान संयतके होता है ॥ ४३ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। मोहनीय कर्मसम्बन्धी उक्त दश बन्धस्थानोंमें अष्टम बन्धस्थानकी तीन प्रकृतियोंमेंसे मानसंज्वलनको छोड़नेपर यह दो प्रकृतिरूप नवमां बन्धस्थान होता है ॥ ४४ ॥ मायासंज्वलन और लोभसंज्वलन, इन दोनों प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ४५ ॥ वह दो प्रकृतिरूप नवम बन्धस्थान संयतके होता है ॥ ४६॥ मोहनीय कर्मसम्बन्धी उक्त दश बन्धस्थानोंमें नवम बन्धस्थानकी दो प्रकृतियोंमेंसे मायासंज्वलनको छोड़नेपर यह एक प्रकृतिरूप दशवां बन्धस्थान होता है ॥४७॥ लोभसंज्वलन, इस एक प्रकृतिके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥४८॥ वह एक प्रकृतिरूप दशवां बन्धस्थान संयतके होता है ॥४९॥ ये सब सूत्र सुगम हैं। आयु कर्मकी चार प्रकृतियां होती हैं ॥५०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy