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१, ९-१, ४२. ] चूलियाए ठाणसमुक्त्तिणे मोहणीयं
[९७ जदि वि तेसि णामाणि अत्थावत्तीदो पमाणाणुसारिसिस्सेहि अवगदाणि, तो वि सद्दाणुसारिसिस्साणुग्गहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
चदुसंजलणं, एदासिं, चदुण्हं पयडीणमेकम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥ ३९॥
सुगममेदं । तं संजदस्स ॥४०॥ एदं पि सुगमं । तत्थ इमं तिण्हं ठाणं कोधसंजलणं वज ॥४१॥ .
चदुसु पयडीसु कोधसंजलणे अवणिदे अबसेसाओ तिण्णि पयडीओ हवंति । सेसं सुगमं ।
माणसंजलणं मायासंजलणं लोभसंजलणं, एदासिं तिण्हं पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥ ४२ ॥
सुगममेदं ।
यद्यपि उन चारों प्रकृतियोंके नाम अर्थापत्तिसे प्रमाणानुसारी शिष्योंके द्वारा जान लिए गये हैं, तथापि शब्दानुसारी शिष्योंके अनुग्रहार्थ आचार्य उत्तर सूत्र कहते हैं
क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और लोभसंज्वलन, इन चारों प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ३९ ॥
यह सूत्र सुगम है। वह चार प्रकृतिरूप सातवां बन्धस्थान संयतके होता है ॥ ४० ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
मोहनीय कर्मसम्बन्धी उक्त दश बन्धस्थानों में सप्तम बन्धस्थानकी चार प्रकृतियोंमेंसे क्रोधसंज्वलनके छोड़नेपर यह तीन प्रकृतिरूप आठवां बन्धस्थान होता है ॥४१॥
चारों संज्वलन प्रकृतियों से क्रोधसंज्वलनके घटा देनेपर अवशेष तीन प्रकृतियां रह जाती हैं । शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और लोभसंज्वलन, इन तीनों प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान होता है ॥ ४२ ॥
यह सूत्र सुगम है।
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