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छक्खंडागमे जीवाणं
तं सासणसम्मादिट्टिस्स ॥ २५ ॥
कुदो ? उवरि अणंताणुबंधिचदुक्कस्स इत्थवेदस्स य बंधाभावा । तं पि कुदो ? तत्थ अणंताणुबंधीणमुदयाभावा । ण च कारणेण विणा कज्जं संभवदि, विरोहादो । तत्थ इमं सत्तरसहं झणं अणंताणुबंधिकोह-माण-माया-लोभं इत्थवेदं वज्ज ॥ २६ ॥
एक्कवीसपयडीसु अणंताणुबंधिचदुक्के अवणिदे सत्तारस पयडीओ हवंति । एदं सुतं वदिरेगणयाणुग्गहङ्कं । ताओ कदमाओ ति पुच्छिदमंदबुद्धिसिस्साणुग्गहट्ठमुत्तरसुत्तं भणदिवारस कसाय पुरिसवेदो हस्सरदि- अरदिसोग दोन्हं जुगलाण - मेक्कदरं भय-दुछा । एदासिं सत्तरसण्हं पयडीणमेक्कम्हि चेव द्वाणं बंधमाणस्स ॥ २७ ॥
तहि एक्कहि सत्तारससंखाए एदासिं बंधजोग्गजीवपरिणामे वा त्ति घेत्तव्वं ।
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वह इक्कीस प्रकृतिरूप द्वितीय बन्धस्थान सासादनसम्यग्दृष्टिके होता है ।। २५ ॥
क्योंकि, दूसरे गुणस्थानसे ऊपर अनन्तानुबन्धी- चतुष्कका और स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता है । और इसका भी कारण यह है कि ऊपरके गुणस्थानोंमें अनन्तानुबन्धी कषायके उदयका अभाव है । तथा कारणके विना कार्य संभव नहीं है, क्योंकि, वैसा मानने पर विरोध आता है ।
मोहनीय कर्मसम्बन्धी उक्त दश बन्धस्थानों में द्वितीय बन्धस्थानकी इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और स्त्रीवेदको छोड़ने पर यह सत्तरह प्रकृतिरूप तृतीय बन्धस्थान होता है ।। २६ ॥
[ १, ९–२, २५.
पूर्व सूत्रोक्त इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे अनन्तानुबन्धी-चतुष्क के निकाल देने पर सत्तरह प्रकृतियां होती हैं । यह सूत्र व्यतिरेकनयवाले जीवोंके अनुग्रहके लिए कहा गया है । वे सत्तरह प्रकृतियां कौनसी है, ऐसा पूछनेवाले मन्द-बुद्धि शिष्योंके अनुग्रहार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं—
अप्रत्याख्यानावरणीय आदि बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य- रति और अरतिशोक इन दोनों युगलोंमें से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा, इन सत्तरह प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है || २७ ||
उस एक सत्तरह संख्या में, अथवा इन सत्तरह प्रकृतियोंके बन्धयोग्य जीवके परिणाममें उनका अवस्थान है, यह अर्थ ग्रहण करना चाहिए । शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
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