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________________ १, ९-२, २४.] चूलियाए ट्ठाणसमुकित्तणे मोहणीय तत्थ इमं एक्कवीसाए टाणं मिच्छत्तं णQसयवेदं वज ॥२३॥ एत्थ णउंसयवेदं च इदि चसदो कायव्यो, अण्णहा समुच्चयस्स अवगमोवायाभावा ? ण, चसद्देण विणा वि तदवगमादो। वदिरेगपज्जवट्ठियणयाणुग्गहट्ठमेदं सुत्तं भणिय विहिणयाणुग्गहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि सोलस कसाया इत्थिवेद पुरिसवेदो दोण्हं वेदाणमेक्कदरं हस्सरदि-अरदिसोग दोण्हं जुगलाणमेक्कदरं भय दुगुंछा । एदासिं एक्कवीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥ २४ ॥ एक्कवीसाए इदि संबंधे छट्ठी। एदासि पयडीणं एक्कम्हि चेव द्वाणमिदि' उत्ते एक्कवीसाए त्ति घेत्तव्यं, एक्कवीसपयडिबंधपाओग्गपरिणामे वा । सेसं सुगमं । एत्थ भंगा चत्तारि (४)। मोहनीय कर्मसम्बन्धी उक्त दश बन्धस्थानोंमें प्रथम बन्धस्थानकी बाईस प्रकृतियोंमेंसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदको छोड़ देनेपर यह इक्कीस प्रकृतिरूप द्वितीय बन्धस्थान होता है ॥ २३ ॥ शंका-यहां सूत्रमें 'और नपुंसकवेदको' इस प्रकार 'च' शब्दका अध्याहार करना चाहिए, अन्यथा समुच्चयार्थके जाननेका और कोई उपाय नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, 'च' शब्दके विना भी समुच्चय अर्थका ज्ञान हो जाता है। ___ व्यतिरेकरूप पर्यायार्थिक नयवाले जीवोंके अनुग्रहके लिए यह सूत्र कहकर अब विधिरूप द्रव्यार्थिक नयवाले जीवोंके अनुग्रहके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं __अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषाय, स्त्रीवेद और पुरुषवेद इन दोनों वेदोंमेंसे कोई एक वेद, हास्य-रति और अरति-शोक इन दोनों युगलोंमेंसे कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा, इन इक्कीस प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥२४॥ 'एकवीसाए' यह सम्बन्ध षष्ठी विभक्ति है। इन प्रकृतियोंका एकमें ही अवस्थान है, ऐसा कहनेपर इक्कीस प्रकृतियोंके समूहात्मक बन्धस्थानमें अवस्थान होता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए । अथवा इक्कीस प्रकृतियोंके बन्धयोग्य परिणाममें अवस्थान होता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए। शेष सूत्रार्थ सुगम है। यहांपर उक्त दोनों वेद और हास्यादि दोनों युगलों विकल्पसे (२४२=४) चार भंग होते हैं। १ अ-आ प्रत्योः 'एकवीसावीसाए' इति पाठः। ३ प्रतिधु ' एकाम्म अवठ्ठाणमिदि' इति पाठः । २ प्रतिषु विहिणाया- ' इति पाठः। ४ चदु इगिवीसे । गो. क. ४६७, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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