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१०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ९-२, २२. पुधभूदस्स आधारत्ताविरोहा ।
तं मिच्छादिट्ठिस्स ॥ २२॥
कुदो ? मिच्छत्तस्सण्णत्थ बंधाभावा । तं पि कुदो ? अण्णत्थ मिच्छत्तोदयाभावा। ण च कारणेण विणा कज्जस्सुप्पत्ती अस्थि, अइप्पसंगादो । तम्हा मिच्छादिट्ठी चेव सामी होदि । एत्थ बंधभंगा छ (६) । इसलिए उसके आधारपना होनेमें कोई विरोध नहीं है।
वह बाईस प्रकृतिरूप प्रथम बन्धस्थान मिथ्यादृष्टिके होता है ॥ २२ ॥
क्योंकि, मिथ्यात्वप्रकृतिका मिथ्यादृष्टि जीवके सिवाय अन्यत्र बन्ध नहीं होता है। और इसका भी कारण यह है कि अन्यत्र मिथ्यात्वप्रकृतिका उदय नहीं होता है, तथा कारणके विना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है । यदि ऐसा न माना जाय तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त होगा। इसलिए यही सिद्ध होता है कि इस बाईस प्रकृतिरूप प्रथम बन्धस्थानका स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव ही है । यहांपर बन्धसम्बन्धी भंग या भेद छह (६) होते हैं।
विशेषार्थ-यहां पर जो बाईस प्रकृतिरूप बन्धस्थानके छह भंग बतलाये हैं, वे इस प्रकार होते हैं- उक्त बाईस प्रकृतियोंमें, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा, ये उन्नीस प्रकृतियां धुवबन्धी हैं, अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थानमें इनका बंध निरन्तर होता ही रहता है। शेष तीनों वेद और हास्य-रति तथा अरति-शोक ये दोनों युगल अधुवबंधी और सप्रतिपक्षी हैं, अर्थात् एक साथ एक जीवमें तीन वेदोंमेंसे किसी एक ही वेदका और दोनों युगलों से किसी एक युगलका बंध होता है । अतएव नाना जीवोंकी अपेक्षा तीनों वेदों और दोनों युगलोंके विकल्पसे परस्पर गुणा करनेपर (३४२=६) छह भंग हो जाते हैं, जो कि क्रमशः इस प्रकार हैं
१ + १६ + १ + २ + २ =२२ १ | मिथ्यात्व सोलह कषाय पुरुषवेद । हास्य-रति । भय-जुगुप्सा २२
स्त्रीवेद नपुंसकवेद पुरुषवेद अरति-शोक स्त्रीवेद नपुंसकवद ।
२२
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ع ام ام لم
ع
२२
जिस प्रकार यहांपर उक्त छह भंगोंकी उत्पत्ति बतलाते हुए उनका क्रमशः उच्चारणक्रम बतलाया गया है, उसी प्रकार आगे भी जहां जहां भंगोंका उल्लेख आया है, वहांपर भी भंगोंका यही क्रम जानना चाहिए।
१छबावीसे । गो. क. ४६७.
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