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१, ९-२, २९.] चूलियाए ट्ठाणसमुक्त्तिणे मोहणीयं
[ ९३ सेसं सुगमं । भंगा दोणि (२) ।
तं सम्मामिच्छादिट्ठिस्स वा असंजदसम्मादिट्ठिस्स वा ॥ २८ ॥ ___ कुदो ? उवरि अपच्चक्खाणचदुकस्स बंधाभावा । तं पि कुदो ? सोदयाभावा । तदो एदाणि दो गुणट्ठाणाणि एदस्स बंधट्ठाणस्स सामित्तं पडिवज्जति ।
तत्थ इमं तेरसहं ठाणं अपञ्चक्खाणावरणीयकोध-माण-मायालोभं वज्ज ॥ २९ ॥
वज्जेत्ति उत्ते वज्जिय इदि घेत्तव्यं । सेसं सुगम । पुव्वुत्तसत्तारसपयडीसु अपच्चक्खाणचदुक्के अवणिदे तेरस पयडीओ हवंति । ताओ कदमाओ त्ति भत्तीए पुच्छिदे तस्साणुग्गहमुत्तरसुत्तं भणदि, पुव्यमणुमाणेण अवगयट्ठस्स दढीकरणटुं वा ।
यहांपर हास्यादि दोनों युगलोंके विकल्पसे (२) दो भंग होते हैं।
वह सत्तरह प्रकृतिरूप तृतीय बन्धस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिके होता है ॥ २८॥
क्योंकि, चतुर्थ गुणस्थानसे ऊपर अप्रत्याख्यानावरणीय कषायचतुष्कका बन्ध नहीं होता है । और इसका भी कारण यह है कि वहांपर स्वोदय अर्थात् अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयका अभाव है। इसलिए सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, ये दोनों गुणस्थान इस सत्तरह प्रकृतिरूप बन्धस्थानके स्वामित्वको प्राप्त होते है।
___ मोहनीय कर्मसम्बन्धी उक्त दश बन्धस्थानों में तृतीय बन्धस्थानकी सत्तरह प्रकृतियोंमेंसे अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभको छोड़नेपर यह तेरह प्रकृतिरूप चतुर्थ बन्धस्थान होता है ॥ २९ ॥
__'वज्ज' ऐसा कहनेपर 'वज्जिय' अर्थात् 'छोड़कर ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए। शेष सूत्रार्थ सुगम है। पूर्वोक्त सत्तरह प्रकृतियोंमेंसे अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय-चतुष्कके घटा देनेपर तेरह प्रकृतियां होती हैं।
वे तेरह प्रकृतियां कौनसी हैं, इस प्रकार भक्तिसे पूछनेपर उस शिष्यके अनुग्रहके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं। अथवा, पहले अनुमानसे जिस तेरह प्रकृतिरूप अर्थको जाना है, उसीके दृढ़ीकरणके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं
१दो दो हवंति छटो नि। गो. क. ४६७. २ प्रतिषु 'पउत्तसत्ता पयटीसु' इति पाठः।
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