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१, ९–२, १८. ]
चूलियाए द्वाणसमुक्कित्तणे वेदणीयं
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बहूणं संजदाणं संजदस्सेति एगवयणेण णिद्देसो कथं घडदे ? ण, तेसिं बहूणं पि संजदत्तणेण एयत्ताविरोहा । ण च एयत्तमणेयत्तं वा अण्णोण्णेण पुधभूदमत्थि, अणुवाद |
वेदणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ, सादावेदणीयं चेव असादावेदणीयं चेव ॥ १७ ॥
( विस्सरणालु सिस्स संभालणदृमिदं सुतं
वज्झमाणपयडिमे संतरंगकारणपटु
एदासिं दोन्हं पयडीणं एकम्हि चैव द्वाणं बंधमाणस्स ॥ १८ ॥
पायण वा । सेसं सुगमं ।
सादासादवेदणीयपयडीणं दोन्हं पि जुगवं बंधो णत्थि, तेसिं बंधकारणविसोहिसंकिलेसाणमक्कमेण पउत्तीए अभावादो । तेणेदेसिं दोन्हमेगं ठाणमिदि ण घडदे; किंतु दोहं वे द्वाणाणि त्ति वत्तव्वं ? बंधकारणविसोहि - संकिलेसाणं चे भेदादो होदु णाम वेदणीयस्स मूलपयडीए सादावेदणीयमसादावेदणीयमिदि वेण्णि द्वाणाणि, दोन्ह
शंका- 'संयतके' इस एक वचनके द्वारा अपूर्वकरणादि बहुतसे संयतोंका निर्देश कैसे घटित होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, बहुतसे भी उन संयतों का संयतत्वकी अपेक्षा एकत्व मानने में कोई विरोध नहीं है । दूसरी बात यह है कि एकत्व और अनेकत्व परस्परमें पृथग्भूत नहीं हैं, क्योंकि, वे भिन्न पाये नहीं जाते हैं । अर्थात् वस्तुओं में संग्रह नयसे अभेद विवक्षा होनेपर एकत्व और व्यवहार नयसे भेदविवक्षा होनेपर अनेकत्वका कथन किया जाता है ।
dattarai दो ही प्रकृतियां हैं- सातावेदनीय और असातावेदनीय ॥ १७ ॥ विस्मरणशील शिष्योंको स्मरण करानेके लिए, अथवा बंधनेवाली प्रकृतिमात्रके अन्तरंग कारणको बतलानेके लिए यह सूत्र रचा गया है । शेष सूत्रार्थ सुगम है । इन दोनों प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान होता है ॥ १८ ॥
शंका- सातावेदनीय और असातावेदनीय, इन दोनों ही प्रकृतियोंका एक साथ बन्ध नहीं होता है, क्योंकि, उन दोनों प्रकृतियोंके बंधके कारणभूत विशुद्धि और संक्लेश परिणामोंकी एक साथ प्रवृत्तिका अभाव है। इसलिए इन दोनों प्रकृतियोंका एक स्थान है, यह बात घटित नहीं होती है; किन्तु दोनों प्रकृतियोंके दो स्थान कहना चाहिए ? समाधान- यदि बन्धके कारणभूत विशुद्धि और संक्लेश परिणामोंके भेदसे वेदनीयकर्मकी मूल प्रकृतिके सातावेदनीय और असातावेदनीय, ये दो स्थान होते हों, तो भले ही होवें, क्योंकि, दोनों प्रकृतियोंका एक साथ बन्ध नहीं होता है, तथा मूल
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