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________________ ८६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ९-२, १४. तत्थ इमं चदुण्हं हाणं, णिदा य पयला य वज चक्खुदसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओधिदंसणावरणीयं केवलदसणावरणीयं चेदि ॥ १४ ॥ __णेदं सुत्तं णिप्फलं, वज्जिज्जमाणपयडिपरूवणाए विणा अप्पिदचदुपयअवगमे उवायाभावा । वदिरेगेण अवगदविधीदो पयडिणिद्देसो णिप्फलो ति णासंकणिज्जं, दव्वट्ठियसिस्साणुग्गहढं णिद्दिवस्स तस्स णिप्फलत्तविरोहा । एदासिं चदुण्हं पयडीणं एकम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥१५॥ एदाओ चत्तारि पयडीओ बंधमाणस्स एक चेव द्वाणं होदि त्ति एत्थ संबंधो कायव्यो, पढमाए अत्थे पाययम्मि छट्ठी-सत्तमीणं पउत्तीए संभवादो । सेसं सुगमं । तं संजदस्स ॥ १६ ॥ कुदो ? अपुव्वकरणादिसुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदंतमहारिसीसु एदासिं बंधुवलंभा। दर्शनावरणीय कर्मके उक्त तीन बन्धस्थानोंमें निद्रा और प्रचलाको छोड़कर चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय, इन चार प्रकृतियोंके समुदायात्मक तीसरा बन्धस्थान है ॥ १४ ॥ __ यह सूत्र निष्फल नहीं है, क्योंकि, छोड़ी जानेवाली प्रकृतियोंकी प्ररूपणाके विना विवक्षित चार पदोंके जानने में और कोई उपाय नहीं है । व्यतिरेकद्वारा विधीयमान प्रकृतियोंके ज्ञात हो जानेसे पुनः सूत्र में प्रकृतियोंका नाम निर्देश करना निष्फल है, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि, द्रव्यार्थिकनयवाले शिष्योंके अनुग्रहार्थ उस निर्दिष्ट प्रकृतिनिर्देशके निष्फलताका विरोध है। इन चार प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥१५॥ यहांपर इस प्रकार अर्थका सम्बन्ध करना चाहिए कि इन चार प्रकृतियोंको बांधनेवाले जीवका एक ही स्थान होता है, क्योंकि, प्रथमा विभक्तिके अर्थमें प्राकृतभाषामें षष्ठी और सप्तमी विभक्तियोंकी प्रवृत्तिका होना संभव है । शेष सूत्रार्थ सुगम है। वह चार प्रकृतिरूप तृतीय बंधस्थान संयतके होता है ॥ १६ ॥ क्योंकि, अपूर्वकरणके सात भागोंमेंसे द्वितीय भागसे आदि लेकर सूक्ष्मसाम्पराथिक शुद्धिसंयत तक महा ऋषियों में इन चारों प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है । १ बत्तारि होति ततो सुहुमकसायरस चरिमो ति । गो. क. ४६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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