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१, ९-२, १३.] चूलियाए हाणसमुक्त्तिणे दंसणावरणीय
[ ८५ एदासिं छण्हं पयडीणं एक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥१२॥
कधमत्थ द्वाणस्स एयत्तं ? छहं पयडीणं बंधजोग्गभावं पडि भेदाभावा । बंधमाणस्सेत्ति उत्ते जीवस्स बज्झमाणस्स वा कम्मस्स ग्गहणं ।
तं सम्मामिच्छादिहिस्स वा असंजदसम्मादिट्ठिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ॥ १३ ॥
संजदस्सेत्ति उत्ते अपुरकरणद्धाए पढमसत्तमभागट्ठिदसंजदाणं ति गहणं । एदासिं पयडीणं बंधस्स जदि एदे सव्वे सामिणो हवंति तो कधमेक्कम्हि अवट्ठाणं, बहुअस्स एयत्तविरोहादो ? ण एस दोसो, बहूणं पि एदेसि छप्पयडिबंधपरिणामेण समाणाणमेयत्ताविरोहा ।
इन छह प्रकृतियोंके बंध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान होता है ॥ १२ ॥
शंका-यहांपर छह प्रकृतियोंवाले स्थानके एकत्व कैसे सम्भव है ?
समाधान-छहों प्रकृतियोंके बन्ध योग्य भावकी अपेक्षा कोई भेद न होनेसे छह प्रकृतियोंवाले स्थानके एकत्व बन जाता है।
'बन्धमानके ' ऐसा कहनेपर बंध करनेवाले जीवका, अथवा बंधनेवाले कर्मका ग्रहण करना चाहिए।
वह छह प्रकृतिरूप द्वितीय बन्धस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ १३ ॥
___ सूत्रमें 'संयतके' ऐसा पद कहनेपर अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथम सप्तम भागमें अर्थात् अपूर्वकरणके सात भागोंमेंसे प्रथम भागमें स्थित संयतोंका ग्रहण करना चाहिए।
___ शंका - इन उपर्युक्त छह प्रकृतियों के बन्धके यदि सूत्रोक्त ये सब सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि स्वामी होते हैं, तो फिर कैसे उन सबका एक भावमें अवस्थान हो सकता है, क्योंकि बहुतोंके एकत्वका विरोध है ? ।
समाधान—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, छह प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले इन बहुतसे भी स्वामियोंके छह प्रकृतियोंके बन्ध परिणामकी अपेक्षा समानता होनेसे एकत्व मानने में कोई विरोध नहीं है।
१ चेव अपुवपटमभागो ति । गो. क. ४६..
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