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________________ ८८ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ९–२, १९. मकमेण बंधाभावा, मूलपयडिवदिरित्तत्तरपयडीणमभावादो च । किंतु गंथयारेण एसो दो ण विवक्खिओ । को पुण गंथयारस्स अहिप्पाओ ? उच्चदे - एदेसिं दोन्हं पि एकहि चैव द्वाणं होदि त्ति उत्ते एकसंखावद्विदत्तादो एकम्हि चेव द्वाणमिदि घेत्तव्त्रं, अण्णा द्वाणस्स यत्तविरोहादो | सेसं सुगमं । तं मिच्छादिट्टिस्स वा सासणसम्मादिट्टिस्स वा सम्मामिच्छादिट्टिस्स वा असंजदसम्मादिट्ठिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ॥ १९ ॥ संजदरसोत्ति वुत्ते जाव सजोगि भयवंतो ताव घेत्तव्यं, ण परदो; तत्थेदस्स बंधाभावा । से सुगमं । मोहणीयस्स कम्मस्स दस हाणाणि वावीसाए एक्कवीसाए सत्तारसहं तेरसहं णवण्हं पंचण्हं चदुण्हं तिण्हं दोन्हं एकिस्से द्वाणं चेदि ॥ २० ॥ प्रकृतिसे व्यतिरिक्त वेदनीयकर्मकी अन्य उत्तर प्रकृतियोंका अभाव है । किन्तु ग्रन्थकारने इस भेदकी विवक्षा नहीं की है । शंका- तो फिर ग्रन्थकारका अभिप्राय क्या है ? समाधान - सातावेदनीय और असातावेदनीय, इन दोनों ही प्रकृतियों का एक ही भावमें अवस्थान होता है, ऐसा कहनेपर एक संख्या अवस्थित होनेसे एक ही भाव अवस्थान है, अर्थात् दोनों प्रकृतियोंका एक ही बन्धस्थान है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए । यदि यह अर्थ ग्रहण नहीं किया जायगा, तो वेदनीय कर्म के बन्धस्थानकी एकताका विरोध आयगा । शेष सूत्रार्थ सुगम है । वह वेदनीय कर्मसम्बन्धी बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ १९ ॥ सूत्र में 'संयतके ' ऐसा सामान्य पद कहने पर सयोगिभगवन्त तकके संयतोंका ग्रहण करना चाहिए, आगेके संयतोंका नहीं, क्योंकि, वहांपर अर्थात् अयोगिभगवन्तके इस स्थानके बन्धका अभाव है । शेष सूत्रार्थ सुगम है । मोहनीय कर्मके दश बन्धस्थान हैं - बाईस प्रकृतिसम्बन्धी, इक्कीस प्रकृतिसम्बन्धी, सत्तरह प्रकृतिसम्बन्धी, तेरह प्रकृतिसम्बन्धी, नौ प्रकृतिसम्बन्धी, पांच प्रकृतिसम्बन्धी, चार प्रकृतिसम्बन्धी, तीन प्रकृतिसम्बन्धी, दो प्रकृतिसम्बन्धी और एक प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थान ॥ २० ॥ १ वावीस मेकवीसं सचारस तेरसेव णव पंच । चदुतियदुगं च एक्कं बंधट्टाणाणि मोहरस ॥ गो . क. ४६३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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