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१, ९-२, ९.] चूलियाए वाणसमुक्त्तिणे दंसणावरणीयं
तत्थ इमं णवण्हं ठाणं, णिहाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी णिद्दा पयला य चक्खुदंसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं केवलदंसणावरणीयं चेदि ॥ ८॥
( सणावरणीयस्स कम्मस्स उत्तरपयडीणं णामणिद्देसो संखा च पयडिसमुक्त्तिणाए सबमेद परूविद, पुणो एत्थ किमटुं उच्चदे ? ण एस दोसो, मंदबुद्धिसिस्ससंभालणद्वत्तादो । अधवा णेदाओ पयडीणं सण्णाओ, किंतु पयडिबंधकारणट्ठाणस्स सत्तीणं सण्णाओ । तेण ण पुणरुत्तदोसो।)
एदासिं णवण्हं पयडीणं एक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥९॥
एदासिं पुव्वुत्तणवपयडीणं एकम्हि चेव भावे द्वाणमवहाणं होदि, बंधमाणस्स जीवस्स एदासिं पयडीणं बंधस्स वा । को सो एक्को भावो ? णवण्हं पयडीणं बंधहेदुसम्मत्ताभावो ।
दर्शनावरणीयकर्मके उक्त तीन बन्धस्थानोंमें निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, और प्रचला, तथा चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय, इन नौ प्रकृतियोंका समुदायात्मक यह प्रथम बन्धस्थान है ॥ ८॥
शंका--दर्शनावरणीयकर्मकी उत्तर प्रकृतियोंका नामनिर्देश और संख्या, यह सब प्रकृतिसमुत्कीर्तना नामकी प्रथम चूलिकामें निरूपण किया जा चुका है, फिर यहां उसे किसलिए कहा जा रहा है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, मन्दबुद्धिवाले शिष्योंको पूर्वोक्त अर्थका स्मरण करानेके लिए वह सब यहां पर पुनः निरूपण किया जा रहा है। अथवा ये निद्रानिद्रा आदि संज्ञाएं प्रकृतियोंकी नहीं हैं, किन्तु प्रकृतिबन्धके कारणभूत स्थानकी शक्तियोंकी संज्ञाएं हैं, इसलिए उनके पुनः कथन करनेपर भी कोई पुनरुक्त दोष नहीं आता है।
इन नौ प्रकृतियोंके बंध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ९ ॥
इन पूर्व सूत्रोक्त नौ प्रकृतियोंका एक ही भावमें स्थान या अवस्थान होता है, अथवा, बंध करनेवाले जीवके इन नवों प्रकृतियोंके बंधका एक ही स्थान या भाव है।
शंका-वह एक भाव कौनसा है ?
समाधान--वह एक भाव दर्शनावरणीय कर्मकी नवों प्रकृतियोंके बन्धका कारणभूत सम्यक्त्वका अभाव है।
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