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________________ ८२ ] [ १, ९–२, ७. तं पंचसखुवलक्खियभावाधारबंधद्वाणमेदेसिं उत्तगुणट्ठागाणं होदि, ण अण्णेसिं, एदेहिंतो पुधभूद्गुणड्डाणाभावा । संजदेत्ति उत्ते मुहुमसां पराइयसंजदंताणं गहणं, उबरमाणावरणबंधाभावा । छक्खंडागमे जीवद्वाणं दंसणावरणीयस्स कम्मस्स तिग्णि द्वाणाणि, णवण्हं छण्हं चदुण्हं ठाणमिदं ॥ ७ ॥ एदं संगहणयसुत्तं, सव्वविसेसाधारत्तादो । एदस्सत्थो उच्चदे - णवपयडिसंबंधि एक्कं ट्ठाणं, छप्पयडिसंबंधि विदियं द्वाणं, चत्तारि पयडिसंबंधि तदियं ठाणं । पयडिं पडि भेदाभावा द्वाणभेदो ण जुज्जदिति चे ण, णव छ- चदुसंखाविसिदुपयडिसमूहाणमेयत्तविरोहा । किं च भिण्णगुणाधारत्तादो चाणेयत्तं द्वाणाणं । पज्जवणयाणुग्गहड्डमुत्तरमुत्तं भणदि वह पांच संख्या से उपलक्षित भावोंका आधारभूत बन्धस्थान इन सूत्रोक्त गुणस्थानवाले बन्धक जीवोंके होता है, अन्यके नहीं; क्योंकि इनसे पृथग्भूत गुणस्थानोंका अभाव है। यहां 'संयत' ऐसा कहनेपर सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत गुणस्थान तकके बन्धक जीवोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, इससे ऊपरके गुणस्थानवाले जीवोंके ज्ञानावरणीयकर्मका बन्ध नहीं होता है । दर्शनावरणीय कर्मके तीन बन्धस्थान हैं— नौ प्रकृतिसम्बन्धी, छह प्रकृतिसम्बन्धी और चार प्रकृतिसम्बन्धी बन्धस्थान ॥ ७ ॥ यह संग्रहनयाश्रित सूत्र है, क्योंकि, वह अपने अन्तर्गत सर्व विशेषका आधारभूत है । इसका अर्थ कहते हैं- दर्शनावरणीय कर्मकी नौ प्रकृतिसम्बन्धी एक स्थान है, स्त्यानगृद्धि आदि तीन प्रकृतियोंको छोड़कर शेष छह प्रकृतिसम्बन्धी दूसरा स्थान है, और चक्षुदर्शनावरण आदि चार प्रकृतिसम्बन्धी तीसरा स्थान है । शंका - प्रकृतियोंके प्रति भेदका अभाव होनेसे स्थानका भेद करना युक्ति-संगत नहीं है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, नौ, छह और चार संख्यासे विशिष्ट प्रकृतियों के समूहोंके एकताका विरोध है । दूसरी बात यह है कि भिन्न गुणस्थानोंके आधारसे स्थानोंके एकता नहीं है, अर्थात् अनेकता या विभिन्नता है । अतएव स्थानका भेद युक्ति-संगत है । अब पर्यायार्थिक नयवाले जीवोंके अनुग्रहके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं— १ णव छक्क चदुक्कं य य विदियावरणस्स बंधठाणाणि । गो . क. ४५९. ' २ णव सासणो चि बंधो छच्चैव अपुव्वपदमभागो चि । चचारि होंति तत्तो सुहुमकसायरस चरिमो चि । गो. क. ४६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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