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________________ [८१ १, ९-२, ६.] चूलियाए ट्ठाणसमुक्त्तिणे गाणावरणीय पुणरुत्तत्तादो ण वत्तव्यमिदं सुत्तं ? ण, सव्वेसिं जीवाणं सरिसणाणावरणीयकम्मक्खओवसमाभावा । जदि सव्वेहि जीवेहि गहिदत्थो टंकुक्किण्णक्खरं व ण विणस्सदि तो पुणरुत्तदोसो होज्ज ।) ण च एवं, जलालिहियंक्खरस्सेव गहिदत्थस्स केसु वि विणासुवलंभादो । तदो भट्ठसंसकारसिस्ससंभालणटुं वत्तव्यमिदं सुत्तं ।। एदासिं पंचण्हं पयडीणं एक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥५॥ एदासि पुव्वुत्तपंचण्हं-पगडीणं बंधमाणस्स जीवस्स एक्कम्हि अवत्थाविसेसे पंचसंखुवलक्खिए हाणमवट्ठाणं होदि । एवकारो किमट्ठो ? एक्क-वे-तिण्णि-चत्तारिसंखुवलक्खियअवत्थाए अवट्ठाणपडिसेहट्ठो। तं मिच्छादिट्ठिस्स वा सासणसम्मादिट्ठिस्स वा सम्मामिच्छादिहिस्स वा असंजदसम्मादिट्ठिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ॥६॥ शंका-पहले प्रकृतिसमुत्कीर्तनचूलिकामें कहे जानेके कारण पुनरुक्त होनेसे यह सूत्र पुनः नहीं कहना चाहिए ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सभी जीवोंके सदृश ज्ञानावरणीयकर्मके क्षयोपशमका अभाव है । यदि सर्व जीवोंके द्वारा ग्रहण किया गया, अर्थात् जाना गया, अर्थ टांकीसे उखेरे गये अक्षरके समान नहीं विनष्ट होता, तो पुनरुक्त दोष होता। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, जलमें लिखे गये अक्षरके समान ग्रहण किये गये अर्थका कितने ही जीवोंमें विनाश पाया जाता है। इसलिए भ्रष्ट संस्कारवाले शिष्यके स्मरण करानेके लिए यह सूत्र कहना चाहिए। इन पांचों प्रकृतियोंके बंध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥५॥ इन, अर्थात् पूर्व सूत्र में कही गई पांचों प्रकृतियोंके बांधनेवाले जीवका 'पांच' इस संख्यासे उपलक्षित एक ही अवस्था-विशेषमें स्थान अर्थात् अवस्थान होता है। शंका-सूत्रमें एवकारपद किसलिए दिया है ? समाधान-ज्ञानावरणीय कर्मकी एक, दो, तीन और चार संख्यासे उपलक्षित प्रकृतिसम्बन्धी अवस्थामें बन्धक जीवोंके अवस्थानका प्रतिषेध करनेके लिए सूत्र में एवकार पद दिया है । अर्थात् दशवे गुणस्थान तक पांचों ही प्रकृतियोंका बन्ध होता रहता है। वह बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥६॥ १ प्रतिषु — सरिसधारणावरणीय कामक्खओ-' इति पाठः। २ प्रतिषु — जलाणिहय-' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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