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________________ १, ९-१, ३०.] चूलियाए पगडिसमुक्त्तिणे णाम-उत्तरपयडीओ [६७ जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स तिलोगपूजा होदि तं तित्थयरं णाम । जं तं गदिणामकम्मं तं चउन्विहं, णिरयगदिणामं तिरिक्खगदिणामं मणुसगदिणामं देवगदिणामं चेदि ॥ २९ ॥ जस्स कम्मस्स उदएण णिरयभावो जीवाणं होदि, तं कम्मं णिरयगदि त्ति उच्चदि', कारणे कज्जुवयारादो । एवं सेसगईणं पि वत्तव्यं । ____जं तं जादिणामकम्मं तं पंचविहं, एइंदियजादिणामकम्म बीइंदियजादिणामकम्मं तीइंदियजादिणामकम्मं चउरिंदियजादिणामकम्मं पंचिंदियजादिणामकम्मं चेदि ॥ ३० ॥ एइंदियाणमेइंदिएहि एइंदियभावेण जस्स कम्मस्स उदएण सरिसत्तं होदि तं कम्ममेइंदियजादिणामं । तं पि अणेयपयारं, अण्णहा जंबु-णिबंब-जंबीर-कयम्बंबिलियालिए. इन्द्रियोंका परस्पर विषय गमन होनेसे व्यतिकर दोष भी प्राप्त होगा। अतएव दोनों दोषोंके परिहारके लिए संस्थाननिर्माण नामकर्मका मानना आवश्यक है। जिस कर्मके उद्यसे जीवकी त्रिलोकमें पूजा होती है, वह तीर्थकर नामकर्म है। जो गतिनामकर्म है वह चार प्रकारका है- नरकगतिनामकर्म, तिर्यग्गतिनामकर्म, मनुष्यगतिनामकर्म और देवगतिनामकर्म ॥ २९॥ जिस कर्मके उदयसे नारकभाव जीवोंके होता है, वह कर्म कारणमें कार्यके उपचारसे 'नरकगति' इस नामसे कहलाता है। इसी प्रकार शेष गतियोंका भी अर्थ कहना चाहिए। ___जो जातिनामकर्म है वह पांच प्रकारका है- एकेन्द्रियजातिनामकर्म, द्वीन्द्रियजातिनामकर्म, त्रीन्द्रियजातिनामकर्म, चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म और पंचेन्द्रियजातिनामकर्म ॥ ३० ॥ जिस कर्मके उदयसे एकेन्द्रिय जीवोंकी एकेन्द्रिय जीवोंके साथ एकेन्द्रियभावसे सदृशता होती है, वह एकेन्द्रियजातिनामकर्म कहलाता है । वह एकेन्द्रियजातिनामकर्म भी अनेक प्रकारका है। यदि ऐसा न माना जाय, तो जामुन, नीम, आम, निब्बू, १ आर्हन्त्यकारणं तीर्थकरत्वनाम । स. सि, त. रा. वा. त. श्लो. वा. ८, ११. २ प्रतिषु 'णिरयाभावो' इति पाठः। ३ यन्निमित्त आत्मनो नारको भावस्तम्मरकगतिनाम । स. सि.; त. रा. वा. ८, ११. ४ एवं शेषेवपि योज्यम् । स. सि.; त. रा. वा. ८, ११. ५ यदुदयादात्मा एकेन्द्रिय इति शब्द्यते तदेकेन्द्रियजातिनाम । स. सि. त. रा. वा. ९, ११. ६ अ-कात्योः ' कयम्बंविलया' आप्रतौ ' कयम्बिविलसियाविलया' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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