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________________ ६६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ९-१, २८. जस्स कम्मस्स उदएण संताणमसंताणं वा गुणाणमुब्भावणं लोगेहि कीरदि, तस्स कम्मस्स जसकित्तिसण्णा' । जस्स कम्मस्सोदएण संताणमसंताणं वा अवगुणाणं उभावणं जणेण कीरदे, तस्स कम्मरस अजसकित्तिसण्णा' । नियतं मानं निमानं । तं दुविहं पमाणणिमिणं संठाणणिमिणमिदि । जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं दो वि णिमिणाणि होंति, तस्स कम्मस्स णिमिणमिदि सण्णा । जदि पमाणणिमिणणामकम्मं ण होज्ज, तो जंघा-बाहु-सिर-णासियादीणं वित्थारायामा लोयंतविसप्पिणो होज । ण चेवं, अणुवलंभा। तदो कालमस्सिदूण जाइं च जीवाणं पमाणणिव्यत्तयं कम्म पमाणणिमिणं णाम । जदि संठाणणिमिणकम्मं णाम ण होज्ज, तो अंगोवंग-पञ्चंगाणि संकर-वदियरसरूवेण' होज । ण च एवं, अणुवलंभा । तदो कण्ण-णयण-णासियादीणं सजादिअणुरूवेण अप्पप्पणो टाणे जं णियामयं तं संठाणणिमिणमिदि । कर्मके उदयसे विद्यमान या अविद्यमान गुणोंका उद्भावन लोगोंके द्वारा किया जाता है, उस कर्मकी 'यश-कीर्ति' यह संज्ञा है । जिस कर्मके उदयसे विद्यमान या अविद्यमान अवगुणोंका उद्भावन लोक द्वारा किया जाता है, उस कर्मकी 'अयशाकीर्ति' यह संज्ञा है । नियत मानको निर्माण कहते हैं । वह दो प्रकारका है-प्रमाणनिर्माण और संस्थाननिर्माण । जिस कर्मके उदयसे जीवोंके दोनों ही प्रकारके निर्माण होते हैं, उस कर्मकी 'निर्माण' यह संज्ञा है । यदि प्रमाणनिर्माणनामकर्म न हो, तो जंघा, बाहु, शिर और नासिका आदिका विस्तार और आयाम लोकके अन्त तक फैलनेवाले हो जावेंगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, उस प्रकारसे पाया नहीं जाता है। इसलिए कालको और जातिको आश्रय करके जीवोंके प्रमाणको निर्माण करनेवाला प्रमाणनिर्माण नामकर्म है। यदि संस्थाननिर्माण नामकर्म न हो, तो अंग, उपांग और प्रत्यंग संकर और व्यतिकरस्वरूप हो जावेंगे । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता है। इसलिए कान, आंख, नाक आदि अंगोंका अपनी जातिके अनुरूप अपने अपने स्थानपर जो नियामक कर्म है, वह संस्थाननामकर्म कहलाता है। विशेषार्थ-ऊपर जो संस्थाननिर्माण नामकर्मके अभावमें अंग-उपांगोंके संकरव्यतिकर स्वरूप होनेका वर्णन किया है, उसका अभिप्राय यह है कि यदि संस्थाननिर्माण नामकर्म न माना जायगा, तो बाधक या नियामक कारणके अभावमें किसी एक अंगके स्थानपर सभी अंगोंके उत्पन्न होनेसे संकरदोष आ सकता है । तथा नियामक कारणके न रहनेसे नाकद्वारा आंखका कार्य और आंखद्वारा कानका कार्य भी होने लगेगा, इस १ पुण्यगुणख्यापनकारणं यशःकीर्तिनाम | स. सि.; त. रा. वा., त. श्लो. वा. ८, ११. २ तत्प्रत्यनीकफलमयश:कीर्तिनाम । स. सि.; त. रा. वा.; त. श्लो. वा. ८, ११. ३ यन्निमित्तात्परिनिष्पत्तिस्तन्निर्माणम् । स. सि.; त. रा. वा.; त. श्लो ८, ११. ४ सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः संकरः । परस्परविषयगमनं व्यतिकरः । न्या. कु. च., पृ. २६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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