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________________ १, ९–१, २८. ] चूलियाए पगडिसमुत्तिणे णाम - उत्तरपयडीओ [ ६५ त्थी पुरिसाणं सोहग्गणिव्वत्तयं सुभगं णाम' । तेसिं चेव दूहवभावणिव्वत्तयं दूहवं णाम । एइंदियादिसु अव्वत्तचेसु कथं सुहव दूहवभावा णज्जंते ? ण, तत्थ तेसिमव्वत्ताणमागमेण अत्थित्तसिद्धीदो । सुस्सरो नाम महुरो णाओ । जस्सोदएण जीवाणं महुरसरो होदि तं कम्मं सुसरं णाम । अमहुरो सरो दुस्सरो, जहा गद्दहुट्टै - सियालादीणं । जस्स कम्मस्स उदएण जीवे दुसरो होदि तं कम्मं दुसरं णाम । आदेयता ग्रहणीयता बहुमान्यता इत्यर्थः । जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स आदेयत्तमुप्पज्जदि तं कम्ममादेयं णा । तव्विवरीय भावणिव्वत्तयकम्ममणादेयं णाम । जसो गुणो, तस्स उब्भावणं कित्ती । करनेवाला अशुभनामकर्म है । स्त्री और पुरुषोंके सौभाग्यको उत्पन्न करनेवाला सुभगनामकर्म है। उन स्त्री-पुरुषोंके ही दुर्भगभाव अर्थात् दौर्भाग्यको उत्पन्न करनेवाला दुर्भगनामकर्म है | शंका- अव्यक्त चेष्टावाले एकेन्द्रिय आदि जीवों में सुभगभाव और दुर्भगभाव कैसे जाने जाते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, एकेन्द्रिय आदि में अव्यक्तरूपसे विद्यमान उन भावोंका अस्तित्व आगमसे सिद्ध है । सुस्वर नाम मधुर नाद ( शब्द ) का है। जिस कर्मके उदयसे जीवोंका मधुर स्वर होता है वह सुस्वर नामकर्म कहलाता है । अमधुर स्वरको दुःस्वर कहते हैं । जैसे - गधा, ऊंट और सियाल आदि जीवोंका अमधुर स्वर होता है । जिस कर्मके उदयसे जीवके बुरा स्वर उत्पन्न होता है वह दुःस्वर नामकर्म कहलाता है । आदेयता, ग्रहणीयता और बहुमान्यता, ये तीनों शब्द एक अर्थवाले हैं। जिस कर्मके उदयसे जीवके बहुमान्यता उत्पन्न होती है, वह आदेयनामकर्म कहलाता है। उससे अर्थात् बहुमान्यतासे विपरीत भाव ( अनादरणीयता ) को उत्पन्न करनेवाला अनादेयनामकर्म है । यश नाम गुणका है, उस गुणके उद्भावनको ( प्रकटीकरणको) कीर्त्ति कहते हैं । जिस १ यदुदयादन्यप्रीतिप्रभवस्तत्सुभगनाम । स. सि. । विरूपाकृतिरपि सन् यदुदयात्परेषां प्रीतिहेतुर्भवति तच्छुभगनाम । त. रा. वा. ८, ११. Jain Education International २ यदुदयाद्रूपादिगुणोपेतोऽप्यप्रीतिकरस्तद् दुर्भगनाम । स. सि.: त. रा. वा.; त. लो. वा. ८, ११. ३ यन्निमित्तं मनोज्ञखरनिर्वर्तनं तत्सुस्वरनाम । स. सि.; त. रा. वा. त. लो. वा. ८, ११. ४ प्रतिषु ' गहुट्ट ' इति पाठः । ५ तद्विपरीतं दुःस्वरनाम । स. सि; त. रा. वा. त. लो. वा. ८, ११. ६ प्रभोपेतशरीर कारणमादेयनाम । स सि.: त. रा. वा. : त. लो. वा. ८, ११. ७ निष्प्रभशरीर कारणमनादेयनाम । स. सि; त. रा. वाल त श्लो. वा. ८, ११. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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