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________________ १४ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ९- १, २८. चउरसीदिकलाओ च तिहि सत्तभागेहि परिहीणणवकट्ठाओ च रसो रससरूत्रेण अच्छि रुहिरं होदि । तं हि तत्तियं चेत्र कालं तत्थच्छिय मांससरूवेण परिणमइ । एवं सेधादूणं पिवत्तन्वं । एवं मासेण रसो सुकरूत्रेण परिणम । एवं जस्स कम्मस्स उदएण धादूणं कमेण परिणामो होदि तमथिरमिदि उत्तं होदि । एदस्साभावे कमपियमो ण होज्ज । ण च एवं अणवत्थादो । सत्तधाउहेउकम्माणि वत्तव्याणि ! ण, तेर्सि सरीरणामकम्मादो उप्पत्तीए । सत्तधाउविरहिदविग्गहगदीए वि थिराथिराणमुदयदंसणादो दासिं तत्थ वावारो त्ति णासंकणिज्जं, सजोगिकेवलिपरघादस्सेव तत्थ अव्वत्तोदएण अवद्वाणादो । जस्स कम्मस्स उदएण अंगोवंगणामकम्मोदयजणिदअंगाणमुवंगाणं च सुहत्तं होदि तं सुहं णाम । अंगोबिंगाणम सुहत्तणिश्वत्तयमसुहं णाम । चौरासी कलाप्रमाण, तथा तीन बटे सात भागोंसे परिहीन नौ काष्ठाप्रमाण ( २५८४ क. ८ का ) काल तक रस रसस्वरूपसे रहकर रुधिररूप परिणत होता है । वह रुधिर भी उतने ही काल तक रुधिररूपसे रहकर मांसस्वरूपसे परिणत होता है। इसी प्रकार शेष धातुओं का भी परिणमन काल कहना चाहिए । इस तरह एक मासके द्वारा रस शुक्ररूपसे परिणत होता है । इस प्रकार जिस कर्मके उदयसे धातुओंका क्रमसे परिमणन होता है, वह ' अस्थिर' नामकर्म कहा गया । इस अस्थिरनामकर्मके अभाव में धातुओंके क्रमशः परिवर्तनका नियम न रहेगा । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा माननेपर अनवस्था प्राप्त होती है । शंका - सातों धातुओंके कारणभूत पृथक् पृथक् कर्म कहना चाहिए ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उन सातों धातुओंकी शरीरनामकर्मसे उत्पत्ति होती है । शंका- - सप्त धातुओंसे रहित विग्रहगति में भी स्थिर और अस्थिर प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है, इसलिए इनका वहां पर व्यापार नहीं मानना चाहिए ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि, सयोगिकेवली भगवान् में परघात प्रकृतिके समान विग्रहगतिमें उन प्रकृतियोंका अव्यक्त उदयरूपसे अवस्थान रहता है । जिस कर्मके उदयसे आंगोपांगनामकर्मादियजनित अंगों और उपांग के शुभपना ( रमणीयत्व ) होता है, वह शुभनामकर्म है । अंग और उपांगों के अशुभताका उत्पन्न १ यदुदयाद्रमणीयत्वं तच्छुभनाम । स. सि.: त. रा. वा. त. लो. वा. ९, ११. २ तद्विपरीतमशुभनाम । स. सि.; त. लो. वा. द्रष्टुः श्रोतुश्रारमणीयकरं अशुभनाम । त. रा. वा. ८, ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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