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________________ १, ९–१, २८. ] चूलियाए पगडिसमुत्तिणे णाम - उत्तरपयडीओ [ ६३ जस्स कम्मस्स उदएण जीवो साधारणसरीरो होज्ज, तस्स कम्मस्स साधारणसरीरमिदि सण्णा' । जदि साहारणणामकम्मं ण होज्ज, तो सच्चे जीवा पत्तेयसरीरा चैव होज्ज । ण च एवं, पडिवक्खाभावे अप्पिदस्स वि अभावप्यसंगा । जस्स कम्मस्स उदएण रस- रुहिर - मेद-मज्जहि-मांस सुक्काणं स्थिरत्तमविणासो अगलणं होज्ज तं थिरणा । जदि थिरणामकम्मं ण होज्ज, तो एदेसिं गलणमेव होज्ज, थिरत्ताभावा । ण च एवं हाणि वड्डीहि विणा अवट्टाणदंसणादो । जस्स कम्मस्स उदएण रस- रुहिर - मांसमेद-म-सुकाणं परिणामो होदि तमथिरणाम । अत्रोपयोगी श्लोकः रसाद्रक्तं ततो मांस मांसान्मेदः प्रवर्त्तते । मेदसोऽस्थि ततो मज्जा मज्झः शुक्रं ततः प्रजा ॥ ११ ॥ पंचदशाक्षिनिमेषा काष्टा । त्रिंशत्काष्ठा कला । विंशतिकलो मुहूर्तः । कलाया दशमभागश्च त्रिंशन्मुहूर्त च भवत्यहोरात्रम् । पंचदश अहोरात्राणि पक्षः । पंचवीसकलासयाई जिस कर्मके उदय से जीव साधारणशरीरी होता है उस कर्मकी 'साधारणशरीर ' यह संज्ञा है । यदि साधारणनामकर्म न हो, तो सभी जीव प्रत्येकशरीरी ही हो जायेंगे । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, प्रतिपक्षीके अभाव में विवक्षित जीवके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होता है । जिस कर्मके उदयसे रस, रुधिर, मेदा, मज्जा, अस्थि, मांस और शुक्र, इन सात धातुओं की स्थिरता अर्थात् अविनाश व अगलन हो, वह स्थिरनामकर्म है । यदि स्थिरनामकर्म न हो, तो इन धातुओंका स्थिरताके अभावसे गलना ही होगा । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, हानि और वृद्धिके विना इन धातुओंका अवस्थान देखा जाता है। जिस कर्मके उदयसे रस रुधिर, मांस, मेदा, मज्जा, अस्थि और शुक्र, इन धातुओंका परिणमन होता है, वह अस्थिरनामकर्म है । इस विषय में यह उपयोगी श्लोक है रससे रक्त बनता है, रक्तसे मांस उत्पन्न होता है, मांससे मेदा पैदा होती है, मेदासे हड्डी बनती है, हड्डीसे मज्जा पैदा होती है, मज्जासे शुक्र उत्पन्न होता है और शुक्रसे प्रजा ( सन्तान ) उत्पन्न होती है ॥ ११ ॥ पन्द्रह नयन - निमेषोंकी एक काष्ठा होती है। तीस काष्ठाकी एक कला होती है । वीस कलाका एक मुहूर्त होता है। तीस मुहूर्त और कलाके दशवें भाग कालप्रमाण एक अहोरात्र ( दिन रात ) होता है । पन्द्रह अहोरात्रोंका एक पक्ष होता है । पच्चीस सौ १ बहूनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारणं शरीरं यतो भवति तत्साधारणशरीरनाम । स. सि.; त. रा. वा.; त. श्लो. वा. ८, ११. २ स्थिरभावस्य निर्वर्तकं स्थिरनाम । स. सि.; त श्लो. वा. यदुदयाद् दुष्करोपवासादितपस्करणेऽपि अंगोपांगानां स्थिरत्वं जायते तत्स्थिरनाम । त. रा. वा. ८, ११. ३ तद्विपरीतम स्थिरनाम । स. सि. त. श्लो. वा. यदुदयादीषदुपवासादिकरणात् स्वल्पशीतोष्णादिसम्बन्धाच्च अंगोपांगानि कृषीभवन्ति तदस्थिरनाम । त. रा. वा. ८, ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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