SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५.] छक्खंडागमे जीवद्राणं [१, ९-१, २८. ___ उच्छ्रसनमुच्छासः । जस्स कम्मस्स उदएण जीवो उस्सास-णिस्सासकज्जुप्पायणक्खमो होदि तस्स कम्मस्स उस्सासो ति सण्णा', कारणे कज्जुवयारादो । जदि उस्सासणामकम्मं ण होज्ज, तो जीवो अणुस्सासो होज्ज । ण च एवं, उस्सास-.. विरहिदजीवाणुवलंभा। आतपनमातपः। जस्स कम्मस्स उदएण जीवसरीरे आदओ होज्ज, तस्स कम्मस्स आदओ त्ति सण्णा । जदि आदवणामकम्मं ण होज्ज, तो परमंडले पुढविक्काइयसरीरे आदवाभावो होज्ज । ण च एवं, तहाणुवलंभा । को आदवो णाम ? सोष्णः प्रकाशः आतपः। एवं संते तेउक्काइयम्मि वि आदावस्स उदओ पावेदि तिचे ण, तत्थतणउण्हपभाए तेउक्काइयणामकम्मोदएणुप्पण्णाए सयलपहाविणाभाविउण्हत्ताभावेण साधम्माभावादो । उद्योतनमुद्योतः । जस्स कम्मस्स उदएण जीवसरीरे उज्जोओ उप्पज्जदि तं कम्मं उज्जोवं णाम । जदि उज्जोवणामकम्मं ण होज्ज, तो चंद-णक्खत्त-तारा-खज्जोतादिसु सरीराणमुज्जोयो ण होज्ज । ण च एवमणुवलंभा । सांस लेनेको उच्छास कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे जीव उच्छास और निःश्वासरूप कार्यके उत्पादनमें समर्थ होता है, उस कर्मकी 'उच्छास' यह संज्ञा कारणमें कार्यके उपचारसे है। यदि उच्छास नामकर्म न हो, तो जीव श्वास रहित हो जाय । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि उच्छाससे रहित जीव पाये नहीं जाते। खूब तपनेको आतप कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे जीवके शरीरमें आताप होता है, उस कर्मकी 'आतप' यह संज्ञा है। यदि आतपनामकर्म न हो, तो पृथिवीकायिक जीवोंके शरीररूप सूर्य-मंडल में आतापका अभाव हो जाय । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। शंका-आतप नाम किसका है ? समाधान-उष्णता-सहित प्रकाशको आतप कहते हैं। शंका-इस प्रकार 'आतप' शब्द का अर्थ करनपर तेजस्कायिक जीवमें भी आतप कर्मका उदय प्राप्त होता है ? । समाधान- नहीं, क्योंकि, तेजस्कायिक नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई उस अग्निकी उष्णप्रभामें सकल प्रभाओंकी अविनाभावी उष्णताका अभाव होनेसे उसका आतपके साथ समानताका अभाव है। उद्योतन अर्थात् चमकनेको उद्योत कहते हैं । जिस कर्मके उदयसे जीवके शरीरमें उद्योत उत्पन्न होता है वह उद्योत नामकर्म है। यदि उद्योत नामकर्म न हो, तो चन्द्र नक्षत्र, तारा और खद्योत ( जुगुनू नामक कीड़ा) आदिमें शरीरोंके उद्योत (प्रकाश) न होवेगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। १ यदेतुरुच्छासस्तदुच्छासनाम । स. सि ; त. रा. बा. त. श्लो. वा. ८, ११. २ यदुदयान्निर्वृत्तमातपनं तदातपनाम । तदादित्ये वर्तते स. सि.; त. रा. वा.: त. श्लो. वा. ८, ११. ३ यानिमित्तमुद्योतनं तदुद्योतनाम । तच्चन्द्र खद्योतादिषु वर्तते । स.सि.; त.रा.वा. त. श्लो. वा. ८, ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy