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________________ १, ९-१, २८.] चूलियाए पगडिसमुक्त्तिणे णाम-उत्तरपयडीओ विहाय आकाशमित्यर्थः । विहायसि गतिः विहायोगतिः' । जेसिं कम्मक्खंधाणमुदएण जीवस्स आगासे गमणं होदि तेसिं विहायगदि त्ति सण्णा । तिरिक्ख-मणुसाणं भूमीए गमणं कस्स कम्मस्स उदएण ? विहायगदिणामस्स । कुदो ? विहत्थिमेत्तप्पायजीवपदेसेहि भूमिमोहहिय सयलजीवपएसाणमायासे गमणुवलंभा । जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं तसत्तं होदि, तस्स कम्मस्स तसेत्ति सण्णा', कारणे कज्जुबयारादो । जदि तसणामकम्म ण होज्ज, तो बीइंदियादीणमभावों होज्ज । ण च एवं, तेसिमुवलंभा । जस्स कम्मस्स उदएण जीवो थावरत्तं पडिवज्जदि तम्स कम्मस्स थावरसण्णा । जदि थावरणामकम्म ण होज्ज, तो थावरजीवाणमभावो होज्ज । ण च एवं, तेसिमुवलंभा । जस्स कम्मस्स उदएण जीवो बादरेसु उप्पज्जदि तस्स कम्मस्स बादरमिदि सण्णा । जदि बादरणामकम्मं ण होज्ज, तो बादराणमभावो होज्ज । ण च एवं, पडिहयसरीरजीवाणं पि उवलंभादो । विहायस् नाम आकाशका है। आकाशमें गमनको विहायोगति कहते हैं। जिन कर्मस्कन्धोंके उदयसे जीवका आकाशमें गमन होता है, उनकी 'विहायोगति' यह संज्ञा है। शंका--तिर्यंच और मनुप्योंका भूमिपर गमन किस कर्मसे उदयसे होता है ? समाधान-विहायोगति नामकर्मके उदयसे, क्योंकि, विहस्तिमात्र (बारह अंगुलप्रमाण) पांववाले जीव-प्रदेशोंके द्वारा भूमिको व्याप्त करके जीवके समस्त प्रदेशोंका आकाशमें गमन पाया जाता है। जिस कर्मके उदयसे जीवोंके सपना होता है, उस कर्मकी 'स' यह संज्ञा कारणमें कार्यके उपचारसे है। यदि त्रसनामकर्म न हो, तो द्वीन्द्रिय आदि जीवोंका अभाव हो जायगा । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, द्वीन्द्रिय आदि जीवोंका सद्भाव पाया जाता है । जिस कर्मके उदयसे जीव स्थावरपनेको प्राप्त होता है, उस कर्मकी 'स्थावर' यह संज्ञा है। यदि स्थावर नामकर्म न हो, तो स्थावर जीवोंका अभाव हो जायगा । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, स्थावर जीवोंका सद्भाव पाया जाता है । जिस कर्मके उदयसे जीव बादरकायवालोंमें उत्पन्न होता है, उस कर्मकी 'बादर' यह संज्ञा है। यदि बादरनामकर्म न हो, तो बादर जीवोंका अभाव हो जायगा । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, प्रतिघाती शरीरवाले जीवोंकी भी उपलब्धि होती है। १ विहाय आकाशम् । तत्र गतिनिर्वतकं तद्विहायोगतिनाम । स. सि.; त. रावा.त. श्लो. वा. ८, १.. २ यदुदयाद द्वीन्द्रियादिषु जन्म तवसनाम । स. सि.; त. रा. वा., त. श्लो. वा. ८,". ३ प्रतिषु 'बीइंदियाणमभावा' इति पाठः। ४ यन्निमित्त एकेन्द्रियेषु प्रादुर्भावस्तत्स्थावरनाम । स. सि.; त. रा. वा.; त. लो. वा.८, ११. ५ अन्यबाधाकरशरीरकारणं बादरनाम । स. सि.; त. रा. वा. त, श्लो. वा. ८, ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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