SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ९–१, २८. पारिणामिओ व अत्थि, तो हेऊ अणेयंतिओ होज्ज । ण च एवं, तहाणुवलंभा । जदि जीवाणं सरिसपरिणामो कम्मायत्तो ण हो, तो चउरिंदिया हय-हत्थि-वय-वग्घ छवलादिसंठाणा होज्ज, पंचिंदिया वि भमर- मक्कुण - सलहिंदगोव- खुल्लक्ख- रुक्ख संठाणाहोज्ज । ण चेवमणुवलंभा, पडिणियदसरिसपरिणामेसु अवट्ठिदरुक्खादीणमुवलंभा च । तदो ण पारिणामिओ जीवाणं सरिसपरिणामो त्ति सिद्धं । जस्स कम्मस्स उदएण आहारवग्गणाए पोग्गलक्खंधा तेजा - कम्मइयवग्गणपोग्गलक्खधा च सरीरजोग्गपरिणामेहि परिणदा संता जीवेण संबज्झति तस्स कम्मक्खंधस्स सरीरमिदि सण्णा' । जदि सरीरणाम कम्मं जीवस्स ण होज्ज, तो तस्स असरीरत्तं पसज्जदे | असरीरत्तादो अमुत्तस्स ण कम्माणि विमुत्त-मुत्ताणं पोग्गलप्पाणं संबंधाभावादो । होदु चेण सव्वजीवाणं सिद्धसमाणत्तावत्तदो संसाराभावप्यसंगा । सरीरमागयाणं पोग्गलक्खंधाणं जीवसंबद्धाणं जेहि पोग्गलेहि जीवसंबद्धेहि पत्तोदरहि द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गल-स्कन्धोंका सदृश परिणाम पारिणामिक भी हो, तो हेतु अनैकान्तिक होवे ? किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, उस प्रकारका अनुपलम्भ है । यदि जीवोंका सदृश परिणाम कर्मके आधीन न होवे, तो चतुरिन्द्रिय जीव घोड़ा, हाथी, भेड़िया, बाघ और छवल्ल आदिके आकारवाले हो जायेंगे । तथा पंचेन्द्रिय जीव भी भ्रमर, मत्कुण, शलभ, इन्द्रगोप, क्षुल्लक, अक्ष और वृक्ष आदि के आकारवाले हो जायेंगे । किन्तु इस प्रकार हैं नहीं, क्योंकि, इस प्रकारके वे पाये नहीं जाते; तथा प्रतिनियत सदृश परिणामोंमें अवस्थित वृक्ष आदि पाये जाते हैं । इसलिये जीवोंका सदृश परिणाम पारिणामिक नहीं है, यह सिद्ध हुआ । जिस कर्मके उदयसे आहारवर्गणाके पुल-स्कन्ध तथा तैजस और कार्मणवर्गणाके पुद्गल-स्कन्ध शरीरयोग्य परिणामोंके द्वारा परिणत होते हुए जीवके साथ सम्बद्ध होते हैं उस कर्म-स्कन्धकी 'शरीर' यह संज्ञा है । यदि शरीरनामकर्म जीवके न हो, तो जीवके अशरीरताका प्रसंग आता है । शरीर रहित होनेसे अमूर्त आत्माके कर्मोंका होना भी संभव नहीं है, क्योंकि, मूर्त पुल और अमूर्त आत्माके सम्बन्ध होनेका अभाव है । शंका-अमूर्त आत्मा और मूर्त पुल, इन दोनोंका यदि सम्बन्ध नहीं हो सकता, तो न होवे, क्या हानि है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, वैसा मानने पर सभी संसारी जीवोंके सिद्धोंके समान होनेकी आपत्तिसे संसारके अभावका प्रसंग प्राप्त होगा । शरीर के लिये आये हुए, जीव-सम्बद्ध पुगल स्कन्धोंका जिन जीव-सम्बद्ध और १ यदुदयादात्मनः शरीरनिर्वृतिस्तच्छरीरनाम । स. सि. स. रा. वा. त. श्लो. वा. ८, ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy