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________________ १, ९-१, २७.] चूलियाए पगडिसमुक्तित्तणे णाम-उत्तरपयडीओ [४९ होदि तेसिं तिरिक्खाउअमिदि सण्णा' । एवं मणुस-देवाउआणं पि वत्तव्यं । जधा घडपड-थंभादीणं पज्जायाणमवट्ठाणं वइससियमेवं णिरयभवादिपज्जायाणं पि वइससिए अवट्ठाणे जादे को दोसो चे ण, अकारणे अवट्ठाणे संते णियमविरोहादो। देव-णेरइयाणं जहण्णमवट्ठाणं दसवाससहस्साणि, उक्कस्सभवावट्ठाणं तेत्तीसं सागरोवमाणि । तिरिक्खमणुसाणं जहण्णमंतोमुहुत्तं, उक्कस्सं तिण्णि पलिदोवमाणि, एसो णियमो ण जुज्जदे, पोग्गलाणं व अणियमेण अवट्ठाणं होज । कधं पुग्गलाणमणियमेण अवट्ठाणं ? एग-वेतिण्णि समयाइं काऊण उक्कस्सेण मेरुपव्वदादिसु अणादि-अपज्जवसिदसरूवेण संहाणावट्ठाणुवलंभा। तम्हा भवावट्ठाणेण सहेउएण होदव्यं, अण्णहा सरीरंतरं गयाणं पि णिरयगदीए उदयप्पसंगादो । णामस्स कम्मस्स वादालीसं पिंडपयडीणामाई ॥२७॥ एदस्स संगहणयसुत्तस्स अत्थो जाणिय वत्तव्यो । भवमें जीवका अवस्थान होता है उन कर्म-स्कन्धोंकी 'तिर्यगायु' यह संशा है। इसी प्रकार मनुष्यायु और देवायुका भी स्वरूप कहना चाहिये। शंका-जिस प्रकार घट, पट और स्तम्भ आदिक पर्यायोंका अवस्थान वैनसिक (स्वाभाविक ) होता है, उसी प्रकार नरक-भव आदि पर्यायोंके भी वैनसिक अवस्थान होनेपर क्या दोष है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अकारण अवस्थान माननेपर नियममें विरोध आता है । अर्थात्, देव और नारकोंका जघन्य अवस्थान दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट भवसम्बन्धी अवस्थान तेतीस सागरोपम है, तिर्यंच और मनुष्योंका जघन्य अवस्थान अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अवस्थान तीन पल्योपम है; यह नियम नहीं घटित होता है। और इस नियमके अभावमें पुद्गलोंके समान अनियमसे अवस्थान प्राप्त होगा। शंका--पुद्गलोंका अनियमसे अवस्थान कैसे है ? । समाधान-पुद्गलोंका एक, दो, तीन समयोंको आदि करके उत्कर्षतः मेरुपर्वत आदिमें अनादि-अनन्तस्वरूपसे एक ही आकारका अवस्थान पाया जाता है। इसलिये भव-सम्बन्धी अवस्थानको सहेतुक होना चाहिये, अन्यथा अन्य शरीरको गये हुए भी जीवोंके नरकगतिके उदयका प्रसंग प्राप्त होगा। नाम कर्मकी ब्यालीस पिंडप्रकृतियां हैं ॥ २७॥ इस संग्रहनयाश्रित सूत्रका अर्थ जान करके कहना चाहिये । १ क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिकृतोपद्रवप्रचुरेषु तिर्यक्षु यस्योदयाद्वसनं तर्यग्योनं । त.रा.वा.; त. श्लो. वा. ८,१.. २ शारीरमानससुखदुःखभूयिष्ठेषु मनुष्येषु जन्मोदयात् मनुष्यायुषः। शारीरमानससुखप्रायेषु देवेषु जन्मोदयात देवायुषः । त. रा. वा.; त. श्लो. वा. ८, ९. ३ त. सू. ८,५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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