________________
१, ९-१, २४.] चूलियाए पगडिसमुक्त्तिणे मोहणीय-उत्तरपयडीओ [४७ जेसिं कम्मक्खंधाणमुदएण पुरुसम्मि आकंखा उप्पज्जइ तेसिमित्थिवेदो ति सण्णा । जेसिमुदएण महेलियाए उवरि आकंखा उप्पज्जइ तेसिं पुरिसवेदो त्ति सण्णा' । जेसिमुदएण इट्टावागग्गिसारिच्छेण दोसु वि आकंखा उप्पज्जइ तेसिं णउंसगवेदो त्ति सण्णा'। हसनं हासः। जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण हस्तणिमित्तो जीवस्स रागो उप्पज्जइ, तस्स कम्मक्खंधस्स हस्सो त्ति सण्णा', कारणे कज्जुवयारादो। रमणं रतिः, रम्यते अनया इति वा रतिः । जेसिं कम्मक्खंधाणमुदएण दव-खेत्त-काल-भावेसु रदी समुप्पज्जइ, तेसिं रदि ति सण्णा । दव्य-खेत्त-काल-भावेसु जेसिमुदएण जीवस्स अरई समुप्पज्जइ तेसिमरदि ति सण्णा । शोचनं शोकः, शोचयतीति वा शोकः । जेसिं कम्मक्खंधाणमुदएण जीवस्स सोगो समुप्पज्जइ तेसिं सोगो त्ति सण्णा । भीतिर्भयम् । जेहिं कम्मक्खंधेहिं उदयमागदेहि जीवस्स भयमुप्पज्जइ तेसिं भयमिदि सण्णा', कारणे अभिप्राय यह है-जिन कर्म-स्कन्धोंके उदयसे पुरुषमें आकांक्षा उत्पन्न होती है उन कर्म-स्कन्धोंकी 'स्त्रीवेद' यह संज्ञा है। जिन कर्म-स्कन्धोंके उदयसे स्त्रीके ऊपर आकांक्षा उत्पन्न होती है उनकी 'पुरुषवेद' यह संज्ञा है। जिन कर्म-स्कन्धोंके उदयसे ईटोंके अवाकी अग्निके समान स्त्री और पुरुष, इन दोनों पर भी आकांक्षा उत्पन्न होती है उनकी 'नपुंसक वेद' यह संज्ञा है। हंसनेको हास्य कहते हैं। जिस कर्म-स्कन्धके उदयसे जीवके हास्य-निमित्तक राग उत्पन्न होता है उस कर्म-स्कन्धकी कारणमें कार्यके उपचारसे 'हास्य' यह संज्ञा है। रमनेको रति कहते हैं, अथवा जिसके द्वारा जीव विषयोंमें आसक्त होकर रमता है उसे रति कहते हैं। जिन कर्म-स्कन्धोंके उदयसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावोंमें राग-भाव उत्पन्न होता है, उनकी ' रति ' यह संज्ञा है । जिन कर्म-स्कन्धोंके उदयसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावोंमें जीवके अरुचि उत्पन्न होती है उनकी ' अरति' यह संज्ञा है । सोच करनेको शोक कहते हैं । अथवा जो विषाद उत्पन्न करता है, उसे शोक कहते हैं । जिन कर्म-स्कन्धोंके उदयसे जीवके शोक उत्पन्न होता है उनकी 'शोक' यह संज्ञा है। भीतिको भय कहते हैं। उदयमें आये हुए जिन कर्मस्कन्धोंके द्वारा जीवके भय उत्पन्न होता है उनकी कारणमें कार्यके उपचारसे ' भय' .................
१ यस्योदयात्पौंस्नान्भावानास्कन्दति स पुंवेदः। स. सि.; त. रा. वा. ८, ९. पुरुगुणभोगे सेदे करोदि लोयम्मि पुरुगुणं कम्मं । पुरुउत्तमो य जम्हा तम्हा सो वण्णिओ पुरिसो ।। गो. जी. २७२.
२ यदुदयानापुंसकान् भावानुपव्रजति स नपुंसकवेदः । स. सि. त.; रा. वा. ८, ९. णेवित्थी व पुमं णउंसओ उहयलिंगवदिरिलो । इटावम्गिसमाणगवेदणगरुओ कलुसचित्तो॥ गो. जी. २७४.
३ यस्योदयाद्धास्याविर्भावस्तद्धास्यम् । स. सि.; त. रा. वा. ८, ९. ४ यदुदयाद्विषयादिष्वौत्सुक्यं सा रतिः। स. सि.; त. रा. वा. ८, ९. ५ अरतिस्त द्विपरीता। स. सि.; त. रा. वा.८,९. ६ यद्विपाकाच्छोचनं स शोकः । स. सि.; त. रा. वा. ८, ९. ७ यदुदयादुद्वेगस्तद्भयम् । स. सि.; त. रा वा. ८, ९.
............
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org