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४६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-१, २४. होदु चे ण, अकसायाणं चारित्तावरणत्तविरोहा। ईषत्कषायो नोकषाय इति सिद्धम् । अनोपयोगी श्लोकः--
( भावस्तत्परिणामो द्विप्रतिषेधस्तदैक्यगमनार्थः ।
नो तद्देशविशेषप्रतिषेधोऽन्यः स्व-परयोगात् ॥ ९॥ कसाएहिंतो णोकसायाणं कधं थोवत्तं ? हिदीहितो अणुभागदो उदयदो य । उदयकालो णोकसायाणं कसाएहिंतो बहुओ उवलब्भदि ति णोकसाएहिंतो कसायाण थोवत्तं किण्णेच्छिज्जदे ? ण, उदयकालमहल्लत्तणेण चारित्तविणासिकसाएहितो तम्मल. फलकम्माणं महल्लत्ताणुववत्तीदो । स्तृणाति आच्छादयति दोपरात्मानं परं चेति स्त्री । पुरुकर्मणि शेते प्रमादयतीति पुरुषः ।) न पुमान स्त्री नपुंसकः। एदस्स अहिप्पाओ
शंका-होने दो, क्या हानि है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अकषायोंके चारित्रको आवरण करनेका विरोध है।
इस प्रकार ईषत् कषायको नोकषाय कहते हैं, यह सिद्ध हुआ। इस विषयमें यह उपयोगी श्लोक है
भाव वस्तुके परिणामको कहते हैं। दो वार प्रतिषेध उसी वस्तुकी एकताका ज्ञान कराता है । 'नो' यह शब्द स्व और परके योगसे विवक्षित वस्तुके एकदेशका प्रतिषेधक और विधायक होता है ॥९॥
शंका-कषायोंसे नोकषायोंके अल्पपना कैसे है ?
समाधान-स्थितियोंकी, अनुभागकी और उदयकी अपेक्षा कषायोसे नोकषायोंके अल्पता पाई जाती है।
शंका-नोकषायोंका उदय-काल कषायों की अपेक्षा बहुत पाया जाता है, इसलिये नोकषायोंकी अपेक्षा कषायोंके अल्पपना क्यों नहीं मान लेते हैं ?
__ समाधान-नहीं, क्योंकि, उदय काल की अधिकता होनेसे चारित्र विनाशक कषायोंकी अपेक्षा चारित्रमें मलको उत्पन्न करनेरूप फलवाले काँके महत्ता नहीं बन सकती है।
जो दोषोंके द्वारा अपने आपको और परको आच्छादित करती है उसे स्त्री कहते हैं। जो महान् कर्मों में शयन करता है, या प्रमत्त होता है उसे पुरुष कहते है । जो न पुरुषरूप हो, और न स्त्रीरूप हो उसे नपुंसक कहते हैं। इस उपर्युक्त कथनका
१ कप्रतौ ' कसाएहितो बहुओ' इति पाठः ।
२ यदुदयात्स्त्रैणान् भावान् प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः। स. सि. ८, ९. यस्योदयात् स्त्रैणान् भावान् मार्दवास्फुटत्वक्लैव्यमदनावेशनेत्रविभ्रमास्फालनसुखपुंस्कामादीन् प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः। त. रा. वा.८, ९. छादयदि सयं दोसेण यदो छाददि परं वि दोसेण । छादणसीला जम्हा तम्हा सा वग्णिया इत्थी । गो. जी. २७३.
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