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१, ९-१, २४.] चूलियाए पगडिसमुक्तित्तणे मोहणीय-उत्तरपयडीओ [४५ रणं किमटुं ? पच्चक्खाणापच्चक्खाणावरणं व संजलणाणं बंधोदयाभावं पडि पच्चासत्ती णत्थि त्ति जाणावणहूँ ।
जं तं णोकसायवेदणीयं कम्मं तं णवविहं, इत्थिवेदं पुरिसवेदं णqसयवेदं हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगंछा चेदि ॥ २४ ॥
एत्थ गोसद्दो देसपडिसेहओ घेत्तव्यो, अण्णहा एदेसिमकसायत्तप्पसंगादो ।
शंका-क्रोधादिकोंमें प्रत्येक पदके साथ संज्वलन शब्दका उच्चारण किसलिये किया गया है ?
समाधान-प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण कषायोंके समान संज्वलन कषायोंके बंध और उदयके अभावके प्रति प्रत्यासत्ति नहीं है, इस बातके बतलानेके लिये सूत्रमें क्रोधादि प्रत्येक पदके साथ संज्वलन शब्दका उच्चारण किया गया है ।
विशेषार्थ-सूत्रमें क्रोधादि प्रत्येक पदके साथ संज्वलन शब्दके उच्चारणका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार चतुर्थ गुणस्थानमें अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारों कषायोंकी एक साथ ही बंध-व्युच्छित्ति और एक साथ ही . उदय-व्युच्छित्ति होती है; तथा जिस प्रकार पंचम गुणस्थानमें प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारों कषायोंकी एक साथ ही बंध-व्युच्छित्ति और एक साथ ही उदय-व्यच्छित्ति होती है, उस प्रकारसे नवमें गुणस्थानमें क्रोधादि चारों संज्वलन कषायोंकी एक साथ न तो बंध व्युच्छित्ति ही होती है और न उदय-व्युच्छित्ति ही । किन्तु पहले वहांपर क्रोधसंज्वलनकी बंधसे व्युच्छित्ति होती है, पुनः मानसंज्वलनकी, पुनः माया-संज्वलनकी, और सबसे अन्तमें लोभसंज्वलनकी, बंध-व्युच्छित्ति होती है । यही क्रम इनकी उदय-व्युच्छित्तिका भी है। विशेषता केवल यह है कि सूक्ष्मलोभसंज्वलन कषायकी उदय-व्युच्छित्ति दशवें गुणस्थानके अन्तमें होती है । अतएव यह सिद्ध हुआ कि प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण कषायोंके समान संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभकपायकी, बंध-व्युच्छित्ति और उदय-व्युच्छित्तिकी अपेक्षा, प्रत्यासत्ति या समानता नहीं है। इसी विभिन्नताके स्पष्टीकरणके लिए सूत्रकारने सूत्रमें क्रोधादि प्रत्येक पदके साथ संज्वलन शब्दका प्रयोग किया है।
जो नोकषायवेदनीय कर्म है वह नौ प्रकारका है--स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा ॥ २४ ॥
यहां पर, अर्थात् नोकषाय शब्दमें प्रयुक्त नो शब्द, एकदेशका प्रतिषेध करनेवाला ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा इन स्त्रीवेदादि नवों कषायोंके अकषायताका प्रसंग प्राप्त होगा।
१त. सू. ८, ९.
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