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________________ १५] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-१, २३. प्रतिषेधयति समस्तं प्रसक्तमर्थं तु जगति नोशब्दः । स पुनस्तदवयवे वा तस्मादर्थान्तरे वा स्यात् ॥ ८॥ अप्रत्याख्यानं संयमासंयमः। तमावृणोतीति अप्रत्याख्यानावरणीयम्। तं चउव्विहं कोह-माण-माया-लोहभेएण । पच्चक्खाणं संजमो महव्वयाई ति एयट्ठो । पच्चक्खाणमावरेंति त्ति पच्चक्खाणावरणीया कोह-माण माया-लोहा। सम्यक् ज्वलतीति संज्वलनम् । किमत्र सम्यक्त्वम् ? चारित्रेण सह ज्वलनम् । चारित्तमविणासेंता उदयं कुणंति त्ति जं उत्तं होदि । चारित्तमविणासेंताणं संजुलणाणं कधं चारित्तावरणत्तं जुञ्जदे ? ण, संजमम्हि मलमुव्वाइय जहाक्खादचारित्तुप्पत्तिपडिबंधयाणं चारित्तावरणत्ताविरोहा । ते वि चत्तारि कोह-माण-माया-लोहभेदेण । कोहाइसु पादेक्कं संजुलणसद्दचा जगत्में 'न' यह शब्द प्रसक्त समस्त अर्थका तो प्रतिषेध करता है । किन्तु वह प्रसक्त अर्थके अवयव अर्थात् एक देशमें, अथवा उससे भिन्न अर्थमें रहता है, अर्थात् उसका बोध कराता है ॥ ८॥ अप्रत्याख्यान संयमासंयमका नाम है । उस अप्रत्याख्यानको जो आवरण करता है उसे अप्रत्याख्यानावरणीय कहते हैं। वह क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे चार प्रकारका है। प्रत्याख्यान, संयम और महाव्रत, ये तीनों एक अर्थवाले नाम हैं। प्रत्याख्यानको जो आवरण करते हैं वे प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभकषाय कहलाते हैं । जो सम्यक् प्रकार जलता है, उसे संज्वलन कषाय कहते हैं। शंका-इस संज्वलन कषायमें सम्यक्पना क्या है ? समाधान-चारित्रके साथ जलना ही इसका सम्यक्पना है। अर्थात्, चारित्रको नहीं विनाश करते हुए ये कषाय उदयको प्राप्त होते हैं, यह अर्थ कहा गया है। शंका-चारित्रको नहीं विनाश करनेवाले संज्वलन कषायोंके चारित्रावरणता कैसे बन सकती है? समाधान नहीं, क्योंकि, ये संज्वलन कषाय संयममें मलको उत्पन्न करके यथाख्यात चारित्रकी उत्पत्तिके प्रतिबंधक होते हैं, इसलिये इनके चारित्रावरणता मानने में कोई विरोध नहीं है। ये संज्वलन कषाय भी क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे चार प्रकारके हैं । १ यदुदयाद्देशविरतिं संयमासंयमाख्यामल्पामपि कर्तुं न शक्रोति, ते देशप्रत्याख्यानमावृण्वन्तोऽप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोमाः ।स. सि.; त. रा. वा. ८, ९. २ यदुदयाद्विरतिं कृत्स्नां संयमाख्यां न शक्नोति कर्तुं ते कृत्स्नं प्रत्याख्यानमावृण्वन्तः प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायलोमाः ।स. सि.; त. रा. वा. ८, ९. ३ समेकीभावे वर्तते । संयमेन सहावस्थानादेकीभूय डवलन्ति संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलनाः क्रोधमानमायालोमाः । स. सि.; त. रा. वा. ८, ९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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