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४२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-१, २३ जेसिं कोह-माण-माया-लोहाणं ते अणंताणुबंधिकोह-माण-माया-लोहा । एदेहितो वड्डिदसंसारो अणंतेसु भवेसु अणुबंधं ण छदेदि त्ति अणंताणुबंधो संसारो। सो जेसिं ते अणंताणुबंधिणो कोह-माण माया-लोहा । एदे चत्तारि वि सम्मत्त-चारित्ताणं विरोहिणो, दुविहसत्तिसंजुत्तत्तादो । तं कुदो णव्वदे ? गुरूवदेसादो जुत्तीदो य । का एत्थ जुत्ती ? उच्चदे- ण ताव एदे दंसणमोहणिज्जा', सम्मत्त-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तेहि चेव आवरियस्स सम्मत्तस्स आवरणे फलाभावादो। ण चारित्तमोहणिज्जा वि, अपञ्चक्खाणावरणादीहि आवरिदचारित्तस्स आवरणे फलाभावा । तदो एदेसिमभावो चेय । ण च अभावो, सुत्तम्हि एदेसिमस्थित्तपदुप्पायणादो । तम्हा एदेसिमुदएण सासणगुणुप्पत्तीए
लोभोंका अनुबन्ध (विपाक या सम्बन्ध ) अनन्त होता है वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाते हैं। इनके द्वारा वृद्धिंगत संसार अनन्त भवोंमें अनुवन्धको नहीं छोड़ता है, इसलिये 'अनन्तानुबन्ध' यह नाम संसारका है । वह संसारात्मक अनन्तानुबन्ध जिनके होता है वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं। ये चारों ही कषाय सम्यक्त्व और चारित्रके विरोधक हैं, क्योंकि, वे सम्यक्त्व और चारित्र, इन दोनोंको घातनेवाली दो प्रकारकी शक्तिसे संयुक्त होते हैं ।
शंका--यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-गुरुके उपदेशसे और युक्तिसे जाना जाता है कि अनन्तानुबन्धी कषायोंकी शक्ति दो प्रकारकी होती है।
__ शंका-अनन्तानुबन्धी कषायोंकी शक्ति दो प्रकारकी है, इस विषयमें क्या युक्ति है ?
समाधान--उपर्युक्त शंकाका उत्तर कहते हैं- सम्यक्त्व और चारित्र, इन दोनोंको घात करनेवाले ये अनन्तानुबन्धी क्रोधादिक न तो दर्शनमोहनीयस्वरूप माने जा सकते हैं, क्योंकि, सम्यक्त्वप्रकृति, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके द्वारा ही आवरण किये जानेवाले सम्यग्दर्शनके आवरण करनेमें फलका अभाव है। और न उन्हें चारित्रमोहनीयस्वरूप भी माना जा सकता है, क्योंकि, अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायोंके द्वारा आवरण किये गये चारित्रके आवरण करनेमें फलका अभाव है। इसलिये उपर्युक्त प्रकारसे इन अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषायोंका अभाव ही सिद्ध होता है। किन्तु उनका अभाव है नहीं, क्योंकि, सूत्रमें इनका अस्तित्व पाया जाता है । इसलिये इन अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषायोंके उदयसे सासादन भावकी उत्पत्ति अन्यथा हो नहीं सकती है,
१ प्रतिषु · दसणमोहीय-' इति पाठः।
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