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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ९–१, २२.
विमिच्छत्तस्स लिंगाई । आगमणागमेसु समभावो सम्मामिच्छत्तलिंगं । अत्तागमपयत्थसद्धाए सिथिलत्तं सङ्ग्राहाणी वि सम्मत्तलिंगं ।
जं तं चारित्तमोहणीयं कम्मं तं दुविहं, कसायवेदणीयं चेव णोकसायदणीयं चैव ॥ २२ ॥
पापक्रियानिवृत्तिचारित्रम् | यादिकम्माणि पावं । तेसिं किरिया मिच्छत्तासंजमकसाया । तेसिमभावो चारितं । तं मौहेइ आवारेदि ति चारित्तमोहणीयं । तं च दुविहं कसाय - णोकसायभेदेण । कुदो दुविहत्तसिद्धी ? कसाय णोकसाएहिंतो पुधभूदतइज्ज - कज्जाणवलं भादो । एदं संगहणयसुत्तं, संगहिदासेसविसेसत्तादो । पज्जवट्ठियसत्ताणुहमुत्तरमुत्तं भणदि
जं तं कसायवेदणीयं कम्मं तं सोलसविहं, अणंताणुबंधिकोहमाण- माया-लोहं, अपच्चक्खाणावरणीय कोह- माण- माया-लोहं, पच्च
संदेह, ये मिथ्यात्वके चिन्ह हैं । आगम और अनागमोंमें सम-भाव होना सम्यग्मिथ्यात्वका चिन्ह है । आप्त, आगम और पदार्थोंकी श्रद्धामें शिथिलता और श्रद्धाकी हीनता होना सम्यक्त्वप्रकृतिका चिन्ह है ।
जो चारित्रमोहनीय कर्म है वह दो प्रकारका है— कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय ॥ २२ ॥
पापरूप क्रियाओं की निवृत्तिको चारित्र कहते हैं। घातिया कर्मोंको पाप कहते हैं । मिथ्यात्व, असंयम और कषाय, ये पापकी क्रियाएं हैं। इन पाप क्रियायोंके अभावको चारित्र कहते हैं । उस चारित्रको जो मोहित करता है, अर्थात् आच्छादित करता है, उसे चारित्रमोहनीय कहते हैं । वह चारित्रमोहनीय कर्म कषायवेदनीय और नोकपायवेदनीयके भेद से दो प्रकारका है।
शंका- चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकारका ही है, यह कैसे सिद्ध होता है ?
समाधान- चूंकि, कषाय और नोकषायोंसे पृथग्भूत तीसरे प्रकारका कोई कार्य नहीं पाया जाता, इससे जाना जाता है कि चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकारका है । यह सूत्र संग्रहनयके आश्रित है, क्योंकि, अपने समस्त विशेषका संग्रह करने
वाला है ।
अब पर्यायार्थिक नयवाले जीवोंके अनुग्रहके लिये उत्तर सूत्र कहते हैंजो कषायवेदनीय कर्म है वह सोलह प्रकारका है- अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्याना
१ त. सू. ८, ९.
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