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________________ (७५) ११. सत्प्ररूपणाका विषय प्रस्तुत ग्रंथमें ही जीवट्ठाणकी उत्थानिकामें कहा गया है कि धरसेन गुरुसे सिद्धान्त सीखकर पुष्पदन्ताचार्य वनवास देशको गये और वहां उन्होंने ' विंशति ' सूत्रोंकी रचना करके और उन्हें जिनपालितको पढ़ाकर भूतबलि आचार्य, जो द्रमिल देशको चले गये थे, के पास भेजा । भूतबलिने उन सूत्रोंको देखा और तत्पश्चात् द्रव्यप्रमाणसे प्रारम्भ करके शेष समस्त पखंडागमकी सूत्र-रचना की । इससे स्पष्ट है कि सत्प्ररूपणाके कुल सूत्र पुष्पदन्ताचार्यके बनाये हुए हैं। किंतु उन सूत्रोंकी संख्या विंशति अर्थात् वीस नहीं परन्तु एक सौ सतत्तर है, तब प्रश्न उपस्थित होता है कि पुष्पदन्तके बनाये हुए वीस सूत्र कहनेसे धवलाकारका तात्पर्य क्या है ? धवलाकारने सत्प्ररूपणाके सूत्रोंका विवरण समाप्त होनेके अनन्तर जो ओघालाप प्रकरण लिखा है वह वीस प्ररूपणाओंको ध्यानमें रखकर ही लिखा गया है । और इस सिद्धान्तका जो सार नेमिचंद्र सि. च. ने गोम्मटसार जीवकाण्डमें संगृहीत किया है वह भी उन वीस प्ररूपणाओंके अनुसार ही है । वे वीस प्ररूपणाएं गोम्मटसारके शब्दोंमें इसप्रकार हैं---- गुणजीवा पज्जती पाणा' सण्णा' य मग्गाओ य । उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिया ॥२॥ अर्थात् गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणाएं और उपयोग ये वीस प्ररूपणाएं हैं। अतएव विंशति सूत्रसे इन्हीं वीस प्ररूपणाओंका तात्पर्य ज्ञात होता है। इन वीसों प्ररूपणाओंका विषय यहां चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणाओंके भीतर आजाता है । राग, द्वेष व मिथ्यात्व भावोंको मोह कहते हैं, और मन, वचन व कायके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंके चंचल होनेको योग कहते हैं, और इन्हीं मोह और योगके निमित्तसे दर्शन ज्ञान और चारित्ररूप आत्मगुणों की क्रमविकासरूप अवस्थाओंको गुणस्थान कहते हैं । ऐसे गुणस्थान चौदह हैं-१ मिथ्यात्व, २ सासादन, ३ मिश्र, ४ अविरतसग्यग्दृष्टि, ५ देशविरत, ६ प्रमत्तविरत, ७ अप्रमत्तविरत, ८ अपूर्वकरण, ९ अनिवृत्तिकरण, १० सूदमसाम्पराय, ११ उपशान्तमोह, १२ क्षीणमोह, १३ सयोगकेवली और १४ अयोगकेवली । १. मिथ्यात्व अवस्थामें जीव अज्ञानके वशीभूत होता है और इसका कारण दर्शन मोहनीय कर्मका उदय है । सासादन और मिश्र मिथ्यात्व और सम्यग्दृष्टि के बीचकी अवस्थाएं हैं। चौथे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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