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गुणस्थान में सम्यकत्व हो जाता है किन्तु चारित्र नहीं सुधरता । देशविरतका चारित्र थोड़ा सुधरता है, प्रमत्तविरतका चारित्र पूर्ण तो होता है, किंतु परिणामोंकी अपेक्षा अप्रमत्तविरतसे चारित्रकी क्रमसे शुद्धि व वृद्धि होती जाती है । ग्यारहवें गुणस्थानमें चारित्रमोहनीयका उपशम हो जाता है और बारहवां गुणस्थान चारित्र मोहनीयके क्षयसे उत्पन्न होता है । तेरहवें गुणस्थान में सम्यग्ज्ञानकी पूर्णता है किन्तु योगोंका सद्भाव भी है । अन्तिम गुणस्थानमें दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी पूर्णता तथा योगोंका अभाव हो जानेसे मोक्ष हो जाता है ।
मार्गणा शब्दका अर्थ खोज करना है । अतएव जिन जिन धर्मविशेषोंसे जीवों की खोज या अन्वेषण किया जाय उन धर्मविशेषोंको मार्गणा कहते हैं। ऐसी मार्गणाएं चौदह हैं-गति, इन्द्रिय काय, योग, वेद कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्र, और आहार ।
१. गति चार प्रकारकी हैं- नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव.
२. इन्द्रियां द्रव्य और भावरूप होती हैं और वे पांच प्रकारकी हैं- स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र.
३. एकेन्द्रियसे पांच इन्द्रियों तककी शरीररचनाको काय कहते हैं । एकेन्द्रिय जीव स्थावर और शेष त्रस कहलाते हैं ।
४. आत्मप्रदेशोंकी चंचलताका नाम योग है इसीसे कर्मबंध होता है। योग तीन निमित्तों से होता है- मन, वचन और काय ।
५. पुरुष, स्त्री व नपुंसक रूप भाव व तद्रूप अवयवविशेषको वेद कहते हैं ।
६. जो आत्मा के निर्मलभाव व चारित्रको कषै अर्थात् घात पहुंचाने वह कपाय है 1 उसके क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद हैं।
७. मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यय, केवल, तथा कुमति. कुश्रुति और कुअवधि रूपसे ज्ञान आठ प्रकारका होता है ।
८. मन व इन्द्रियोंकी वृत्तिके निरोधका नाम संयम है और यह संयम हिंसादिक पापोंकी निवृत्तिसे प्रकट होता है । सामायिक छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात, संयमासंयम और असंयम, ये संयमके सात भेद हैं।
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९. चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल ये दर्शन के चार भेद हैं ।
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