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________________ (७१) धवलाकी रचनाके पश्चात् उसके सबसे बड़े पारगामी विद्वान् नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने इन दो ही विभागोंको ध्यानमें रखकर जीवकाण्ड और कर्मकाण्डकी रचना की, ऐसा प्रतीत होता है । तथा उसके छहों खंडोंका ख्याल करके उन्होंने गर्वके साथ कहा है कि ' जिसप्रकार एक चक्रवर्ती अपने चक्रके द्वारा छह खंड पृथिवीको निर्विघ्नरूपसे अपने वशमें कर लेता है, उसीप्रकार अपने मतिरूपी चक्रद्वारा मैंने छह खंड सिद्धान्तका सम्यक् प्रकारसे साधन कर लिया' जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साहिय अविग्घेण । तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥ ३९७ ॥ गो. क. इससे आचार्य नेमिचंद्रको सिद्धान्तचक्रवर्तीका पद मिल गया और तभीसे उक्त पूरे सिद्धान्तके ज्ञाताको इस पदवीसे विभूषित करनेकी प्रथा चल पड़ी । जो इसके केवल प्रथम तीन खंडोंमें पारंगत होते थे, उन्हें ही जान पड़ता है, विद्यदेवका पद दिया जाता था । श्रवणबेलगोलाके शिलालेखोंमें अनेक मुनियोंके नाम इन पदवियोंसे अलंकृत पाये जाते हैं । इन उपाधियोंने वीरसेनसे पूर्वकी सूत्राचार्य, उच्चारणाचार्य, व्याख्यानाचार्य, निक्षेपाचार्य व महावाचककी पदवियोंका सर्वथा स्थान ले लिया। किंतु थोड़े ही कालमें गोम्मटसारने इन सिद्धान्तोंका भी स्थान ले लिया और उनका पठन-पाठन सर्वथा रुक गया । आज कई शताब्दियोंके पश्चात् इनके सुप्रचारका पुनः सुअवसर मिल रहा है। दिगम्बर सम्प्रदायकी मान्यतानुसार षट्खंडागम और कषायप्राभृत ही ऐसे ग्रंथ हैं जिनका सीधा सम्बंध महावीरस्वामीकी द्वादशांग वागीसे माना जाता है। शेष " सब श्रुतज्ञान इससे पूर्व ही क्रमशः लुप्त व छिन्न भिन्न होगया। द्वादशांग श्रुतका द्वादशागत प्रस्तुत प्रथमें विस्तारसे परिचय कराया गया है (पृ. ९९ से)। इनमेंसे सम्बध बारहवें अंगको छोड़कर शेष सब ही नामोंके अंग-पंथ श्वेताम्बर सम्प्रदायमें अब भी पाये जाते हैं। इन ग्रंथोंकी परम्परा क्या है और उनका विषय विस्तारादि दिगम्बर मान्यताके कहांतक अनुकूल प्रतिकूल है इसका विवेचन आगेके किसी खंडमें किया जायगा, यहां केवल यह बात ध्यान देने योग्य है कि जो ग्यारह अंग श्वेताम्बर साहित्यमें हैं वे दिगम्बर साहित्यमें नहीं हैं और जिस बारहवें अंगका श्वेताम्बर साहित्यमें सर्वथा अभाव है वही दृष्टिवाद नामक बारहवां अंग प्रस्तुत सिद्धान्त ग्रन्थोंका उद्गमस्थान है। बारहवें दृष्टिवादके अन्तर्गत परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चलिका ये पांच प्रभेद हैं । इनमेंसे पूर्वगतके चौदह भेदो के द्वितीय आग्रायणीय पूर्वसे ही जीवट्ठाणका बहुभाग और शेष पांच खंड संपूर्ण निकले हैं जिनका क्रमभेद नीचेके वंशवृक्षोंसे स्पष्ट हो जायगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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