SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७० ) प्रयोजन हो सकता है और यह ठीक भी है, क्योंकि, पूर्वोकी रचना में उक्त चौवीस अनुयोगद्वारोंका नाम महाकर्मप्रकृतिपाहुड है । उसीका घरसेन गुरुने पुष्पदन्त भूतबलि द्वारा उद्धार कराया है, जैसा कि जीवट्टाणके अन्त व खुद्धाबंधके आदिकी एक गाथासे प्रकट होता हैजय धरसेणणाहो जेण महाकम्मपयडिपाहुडसेलो । बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ पुप्फयंतस्स ॥ ( धवला अ. ४७५ ) सत्कर्म कहे जा सकते महाकर्म प्रकृति और सत्कर्म संज्ञाएं एक ही अर्थकी द्योतक हैं । अतः सिद्ध होता है कि इस समस्त षट्ंडागमका नाम सत्कर्मप्राभृत है । और चूंकि इसका बहुभाग धवला टीकामें प्रथित है, अतः समस्त धवला को भी सत्कर्मप्राभृत कहना अनुचित नहीं । उसी प्रकार महाबंध या निबन्धनादि अठारह अधिकार भी इसीके एक खंड होनेसे हैं । और जिसप्रकार खंड विभागकी दृष्टिसे कृतिका वेदना खंडमें, और बंधनके प्रथम भेद बंधका वर्गणाखंडमें अन्तर्भाव कर लिया गया अठारह अधिकारों का महाबंध नामक खंडमें अन्तर्भाव अनुमान किया धवलान्तर्गत उक्त पंचिका के कथनकी सार्थकता सिद्ध हो जाती है, होने से वह भी सत्कर्म कहा जा सकता है । है, स्पर्श, कर्म, प्रकृति तथा उसी प्रकार निबन्धनादि सत्कर्मप्राभृत व षट्खंडागम तथा उसकी टीका धवलाकी इस रचना को देखनेसे ज्ञात होता है कि उसके मुख्यतः दो विभाग हैं । प्रथम विभागके अन्तर्गत जीवद्वाण, खुदाबंध व बंधस्वामित्वावचय हैं । इनका मंगलाचरण, श्रुतावतार आदि एक ही बार जीवट्टाणके आदिमें किया गया है और उन सबका विषय भी जीव या बंधककी मुख्यतासे है । जीवद्वाणमें गुणस्थान और मार्गणाओंकी अपेक्षा सत्, संख्या आदि रूपसे जीवतत्वका विचार किया गया है । खुद्द बंध में सामान्यकी अपेक्षा बंधक, और बंधस्वामित्वविचयमें विशेषकी अपेक्षा बंधकका विवरण है । Jain Education International जा सकता है जिससे महाक्योंकि, सत्कर्मका एक विभाग दूसरे विभाग के आदिमें पुनः मंगलाचरण व श्रुतावतार दिया गया है, और उसमें यथार्थतः कृति, वेदना आदि चौवीस अधिकारोंका क्रमशः वर्णन किया गया है और इस समस्त विभाग में प्रधानता से कर्मोंकी समस्त दशाओंका विवरण होनेसे उसकी विशेष संज्ञा सत्कर्मप्राभृत है । इन चौवीसोंमेंसे द्वितीय अधिकार वेदनाका विस्तारसे वर्णन किये जानेके कारण उसे प्रधानता प्राप्त हो गई और उसके नामसे चौथा खंड खड़ा हो गया । बंधनके तीसरे भेद बंधनीयमें वर्गणाओंका विस्तार से वर्णन आया और उसके महत्वके कारण वर्गणा नामका पांचवां खंड हो गया । इसी बंधनके चौथे भेद बंधविधानके खूब विस्तारसे वर्णन किये जानेके कारण उसका महाबंध नामक छठवां खंड बन गया और शेष अठारह अधिकार उन्हींके आजूबाजूकी वस्तु रह गये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy