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________________ महाधवल या सत्कर्मकी उक्त पंचिका कबकी और किसकी है ? संभवतः यह वही पंचिका है जिसको इन्द्रनन्दिने समन्तभद्रसे भी पूर्व तुम्बुलूराचार्यद्वारा सात हजार श्लोक प्रमाण विरचित कहा है। [ देखो ऊपर पृ. ४९] किंतु जयधवलामें एक स्थानपर स्पष्ट कहा गया है कि सत्कर्म महाधिकारमें कृति, वेदनादि चौवीस अनुयोगद्वार प्रतिबद्ध हैं और उनमें उदय नामक अर्थाधिकार प्रकृति सहित स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य व अजघन्य उदयके प्ररूपणमें व्यापार करता है । यथा संतकम्ममहाहियारे कदि-वेदणादि-चउवीसमणियोगद्दारेसु पडिबद्धेसु उदओ गाम अ थाहियारो द्विदि-अणुभाग-पदेसाणं पयडिसमणियाणमुक्कस्साणुक्कस्स-जहण्णाजहण्णुदयपरूवणे य व वारो । जयध. अ. ५१२. ___ इससे जाना जाता है कि कृति, वेदनादि चौवीस अनुयोगद्वारोंका ही समष्टिरूपसे सत्कर्म महाधिकार नाम है और चूंकि ये चौवीस अधिकार तीसरे अर्थात् बंधस्वामित्वविचयके पश्चात् क्रमसे वर्णन किये गये हैं, अतः उस समस्त विभाग अर्थात् अन्तिम तीन खंडोंका नाम संतकम्म या सत्कर्मपाहुड महाधिकार है। किन्तु, जैसा आगे चलकर ज्ञात होगा, इन्हीं चौबीस अनुयोगद्वारोंसे जीवट्ठाणके थोडेसे भागको छोड़कर शेष समस्त पखंडागमकी उत्पत्ति हुई है । अतः जयधवलाके उल्लेखपरसे इस समस्त ग्रंथका नाम भी सत्कर्म महाधिकार सिद्ध होता है । इस अनुमानकी पुष्टि प्रस्तुत ग्रंथके दो उल्लेखोंसे अच्छीतरह हो जाती है। पृ. २१७ पर कषायपाहुड और सत्कर्मपाहुडके उपदेशमें मतभेदका उल्लेख किया गया है । यथा ' एसो संतकम्म-पाहुड-उवएसो । कसायपाहुड-उबरसो पुण........" आगे चलकर पृष्ट २२१ पर शंका की गई कि इनमें से एक वचन सूत्र और दूसरा असूत्र होना चाहिये और यह संभव भी है, क्योंकि, ये जिनेन्द्र वचन नहीं हैं किन्तु आचायोंके वचन हैं । इसका समाधान किया गया है कि नहीं, सत्कर्म और कषायपाहुड दोनों ही सूत्र हैं, क्योंकि उनमें तीर्थंकरद्वारा कथित, गणधरद्वारा रचित तथा आचार्यपरंपरासे आगत अर्थका ही ग्रंथन किया गया है । यथा'आइरियकहियाणं संतकम्म-कसाय-पाहुडाणं कथं सुत्तत्तणमिदि चे ण...." [ पृ. २२.१ ] यहां स्पष्टतः कषाय पाहुड के साथ सत्कर्मपाहुडसे प्रस्तुत समस्त षटखंडागमसे ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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