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________________ (६८) इन्द्रनन्दिके उपर्युक्त कथनानुसार यही चूलिका संक्षेपसे छठवां खंड ठहरता है, और इसका नाम सत्कर्म प्रतीत होता है, तथा इसके सहित धवला पटखं डागम ७२ हजार श्लोक प्रमाण सिद्ध होता है । विबुध श्रीधरके मतानुसार वीरसेनकृत ७२ हजार प्रमाण समस्त धवला टीकाका ही नाम सत्कर्म है । यथा---- __ अत्रान्तरे एलाचार्यभट्टारकपार्श्व सिद्धान्तद्वयं वीरसेननामा मुनिः पठित्वाऽपराण्यपि अष्टादशा धिकाराणि प्राप्य पंच-खंडे षट्-खंड संकल्प्य संस्कृतम्राकृतभाषया सत्कर्मनामटोकां द्वासप्ततिसहस्रप्रमितां धवलनामांकितां लिखाप्य विशंतिसहस्रकर्पप्राभृतं विचार्य वीरसेनो. मुनिः स्वर्ग यास्यति । ( विबुध श्रीधर. श्रुतावतार मा प्र. मा. २१, पृ. ३१८ ) दुर्भाग्यत: महाबंध ( महाधवल ) हमें उपलब्ध नहीं है, इस कारण महाबंध और स कर्म नामोंकी इस उलझनको सुलझाना कठिन प्रतीत होता है। किन्तु मृडविद्रीमें सुरक्षित महाधवलका जो थोडासा परिचय उपलब्ध हुआ है उससे ज्ञात होता है कि वह ग्रंथ भी सत्कर्म नामसे है और उसपर एक पंचिकारूप विवरण है जिसके आदिमें ही कहा गया है 'वोच्छामि संतकम्मे पंचियरूवेण विवरणं सुमहत्थं ।'......"चोवीसमणियोगद्दारेसु तत्थ कदिवेदणा त्ति जाणि अणियोगद्दाराणि वेदणाखंडम्हि पुणो फास ( कम्म-पयडि-बंधणाणि ) चत्तारि अणियोगद्दारेसु तत्थ बंध-बंधणिज्जणामणियोगेहि सह वग्गणाखंडम्हि, पुणो बंधविधाणणामाणियोगो खुद्दाबंधम्हि सप्पवंचेण परूविदाणि । तो वि तस्सइगंभीरत्तादो अस्थ-विसम पदाणमत्थे थोरुद्धयेण (?) पंचियहरूवेण भणिस्सामो । ( वीरवाणी सि भ रिपोर्ट, १९३५) ___ इसका भावार्थ यह है कि महाकर्मप्रकृति पाहुडके चौवीस अनुयोगद्वारों से कृति और वेदनाका वेदना खंडमें, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बंधनके बंध और बंधनीयका वर्गणाखंडमें और बंधविधान' नामक अनुयोगद्वारका खुद्दाबंधमें विस्तारसे वर्णन किया जा चुका है । इनसे शेष अठारह अनुयोगद्वार सब सत्कर्ममें प्ररूपित किये गये हैं। तो भी उनके अतिगंभीर होनेसे उसके विषम पदोंका अर्थ संक्षेपमें पंचिकारूपसे यहां कहा जाता है । इससे जान पड़ा कि महाधवलका मूलग्रंथ संतकम्म ( सत्कर्म ) नामका है और उसमें महाकर्मप्रकृतिपाहुडके चौवीस अनुयोगद्वारों से वेदना और वर्गणाखंडमें वर्णित प्रथम छहको छोडकर शेष निबंधनादि अठारह अनुयोगद्वारोंका प्ररूण है। १ यहां पाठमें कुछ त्रुटि जान पड़ती है, क्योंकि, धवलाके अनुसार खुद्दाबंधसें बंधकका वर्णन है और बंधविधान महाबंधका विषय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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