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________________ (६२) इस विषय का एक उपयोगी श्लोक कहकर निम्न श्लोक उद्धृत किया हैधनञ्जयकृत २ अनेकार्थ हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्ययः । । प्रादुर्भावे समाप्तं च इति शब्दं विदुर्बुधाः ॥ धवला. अ. ३८७ नाममाला ___ यह श्लोक धनजयकृत अनेकार्थ नाममालाका है और वहां वह अपने शुद्धरूपमें इसप्रकार पाया जाता है हेतावेवं प्रकारादौ व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भावे समाप्तौ च इति शब्दः प्रकीर्तितः ॥ ३९ ॥ इन्हीं धनञ्जयका बनाया हुआ नाममाला कोष भी है जिसमें उन्होंने अपने द्विसंधान काव्यको तथा अकलंकके प्रमाण और पूज्यपादके लक्षणको अपश्चिम कहा है अर्थात् उनके समान फिर कोई नही लिख सका। इससे यह तो स्पष्ट था कि उक्त कोषकार धनञ्जय, पूज्यपाद और अकलंकके पश्चात् हए । किन्तु कितने पश्चात् इसका अभतिक निर्णय नहीं होता था । धवलाके उल्लेबसे प्रमाणित होता है कि धनञ्जयका समय धवलाकी समाप्तिसे अर्थात् शक ७३८ से पूर्व है । धवलामें कुछ ऐसे ग्रंथोंके उल्लेख भी पाये जाते हैं जिनके संबंधमें अभीतक कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि वे कहांके और किसके बनाये हुए हैं। इसप्रकारका एक उल्लेख जीवसमासका है । यथा, (धवला प. २८९) जीवसमासाए वि उत्तं छप्पंचणव-विहाणं अस्थाणं जिणवरोवइट्टाणं । आणाए अहिंगमेण य सदहणं होइ सम्मत्तं ।। यह गाथा 'उक्तं च ' रूपसे सत्प्ररूपणामें भी दो बार आई है और गोम्मटसार जीवकाण्डमें भी है। एक जगह धवलाकारने छेदसूत्र का उल्लेख किया है । यथाण च दविस्थिणवंसयवेदाणं चेलादिचाओ अस्थि छेदसुत्तेण सह विरोहादो । धवला. अ. ९०७. एक उल्लेख कर्मप्रवादका भी है । यथा १ देखो ऊपर पृ. ६.. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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