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च तत्वार्थभाष्ये' या 'तत्वार्थभाष्यगत' प्रकट किया गया है। धवलामें एक स्थान (प.७००) पर कहा गया है--
पूज्यपादभट्टारकैरप्यभाणि---सामान्य-नय-लक्षणमिदमेव । तद्यथा, प्रमाण-प्रकाशितार्थविशेष-प्ररूपको नयः इति ।
इसके आगे 'प्रकर्पण मानं प्रमाणम् ' आदि उक्त लक्षणकी व्याख्या भी दी है । यही लक्षण व व्याख्या तत्वार्थराजवार्तिक, १, ३३, १ में आई है । जयधवला ( पत्र २६ ) में भी यह व्याख्या दी गई है और वहां उसे ' तत्वार्थभाष्यगत ' कहा है । 'अयं वाक्यनयः तत्वार्थभाष्यगतः' । इससे सिद्ध होता है कि राजवार्तिकका असली प्राचीन नाम ' तत्वार्थभाष्य' है और उसके कर्ता अकलंकका सन्मानसूचक उपनाम 'पूज्यपाद भट्टारक ' भी था। उनका नाम भट्टाकलंकदेव तो मिलता ही है।
- धवलाके वेदनाखंडान्तर्गत नयके निरूपणमें ( प. ७००) प्रभाचन्द्र भट्टारकप्रभाचन्द्र भट्टारक
द्वारा कहा गया नयका लक्षण उद्धृत किया गया है, जो इस प्रकार है'प्रभाचन्द्र-भट्टारकैरप्यभाणि-प्रमाण-व्यपाश्रय- परिणाम-विकल्प-वशीकृतार्थ-विशेषप्ररूपण--प्रवणः प्रणिधिर्यः स नय इति ।'
ठीक यही लक्षण प्रमाणव्यपाश्रय ' आदि जयधवला ( प. २६ ) में भी आया है और उसके पश्चात् लिखा है 'अयं नास्य नयः प्रभाचन्द्रो यः' । यह हमारी प्रतिकी अशुद्धि ज्ञात होती है और इसका ठीक रूप · अयं वाक्यनयः प्रभाचन्द्रीयः ' ऐसा प्रतीत होता है ।
___प्रभाचन्द्रकृत दो प्रौढ़ न्याय-ग्रंथ सुप्रसिद्ध हैं, एक प्रमेयकमलमार्तण्ड और दूसरा न्यायकुमुदचन्द्रोदय । इस दूसरे ग्रंथका अभी एक ही खंड प्रकाशित हुआ है । इन दोनों ग्रंथोंमें उक्त लक्षणका पता लगानेका हमने प्रयत्न किया किन्तु वह उनमें नहीं मिला । तब हमने न्या. कु. चं. के सुयोग्य सम्पादक पं. महेन्द्रकुमारजीसे भी इसकी खोज करनेकी प्रार्थना की । किन्तु उन्होंने भी परिश्रम करनेके पश्चात् हमें सूचित किया कि बहुत खोज करनेपर भी उस लक्षणका पता नहीं लग रहा । इससे प्रतीत होता है कि प्रभाचन्दकृत कोई और भी ग्रंथ रहा है जो अभी तक प्रसिद्विमें नहीं आया और उसीके अन्तर्गत वह लक्षण हो, या इसके की कोई दूसरे ही प्रभाचन्द्र
हुए हों?
धवलामें 'इति' के अनेक अर्थ बतलानेके लिये 'एत्थ उवजंतओ सिलोगो' अर्थात्
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