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आचारांग
(६०) धवलामें एक गाथा इसप्रकारसे उद्धृत मिलती है-
पंचत्थिकाया य छज्जीवणिकायकालदव्यमण्णे य । आणागेज्झे भावे आणाविचएण विचिणादि ॥
यह गाथा बट्टकेरकृत मूलाचार में निम्न प्रकारसे पाई जाती हैपंचत्थिकायछज्जीवणिकाये कालदव्यमण्णे य । आणा भावे आणाविचयेण विचिणादि ॥ ३९९ ॥
यदि उक्त गाथा यहींसे धवलामें उद्धृत की गई हो तो कहा जा सकता है कि उस समय मूलाचार की प्रख्याति आचारांगके नामसे थी ।
धवला. अ. २८९
स्वामी समन्तभद्र के जो उल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं उनका परिचय हम पखंडागमकी अन्य टीकाओंके प्रकरणमें करा ही आये हैं ।
पूज्यपादकृत
धवलाकारने नयका निरूपण करते हुए एक जगह पूज्यपादद्वारा सारसंग्रहमें दिया संग्रह हुआ नया लक्षण उद्धृत किया है । यथा-
सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादैः - अनन्तपर्यायात्मकस्य कर्तव्ये जात्यपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय इति ।
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पहले अनुमान होता है कि संभव है पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धिको ही यहां सारसंग्रह कहा गया हो । किन्तु उपलब्ध सर्वार्थसिद्धिमें नयका लक्षण इस प्रकारसे नहीं पाया जाता । इससे पता चलता है कि पूज्यपादकृत सारसंग्रह नामका कोई और ग्रन्थ धवलाकारके सन्मुख था । ग्रंथके नामपर से जान पड़ता है कि उसमें सिद्धान्तोंका मथितार्थ संग्रह किया गया होगा । संभव है ऐसे ही सुन्दर लक्षणोंको दृष्टिमें रखकर धनञ्जयने अपने नाममालाकोषकी प्रशस्तिमें पूज्यपादके 'लक्षण' को अपश्चिम अर्थात् बेजोड़ कहा है । यथा
पूज्यपाद भट्टारक अकलंक
वस्तुनोऽन्यतम पर्यायाधिगमे धवला. अ. ७०० वेदनाखंड
प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । द्विसंधानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥ २०३ ॥
अकलंकदेवकृत तत्त्वार्थराजवार्तिकका धवलाकारने खूब उपयोग किया है और, जैसा हम ऊपर कह आये हैं, कहीं शब्दशः और कहीं कुछ हेरफेरके साथ उसके अनेक अवतरण दिये हैं । किन्तु न तो उनके साथ कहीं अकलंकका नाम आया और न ' राजवार्तिकका' । उन अवतरणको प्रायः 'उक्तं
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