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________________ (५५) था। पर इसमें भी यह बात उल्लेखनीय है कि इन सूत्र-ग्रंथों के अनेक संस्करण छोटे-बड़े पाठ-भेदोंको रखते हुए उनके सन्मुख विद्यमान थे। उन्होंने अनेक जगह सूत्र-पुस्तकोंके भिन्न भिन्न पाठों व तजन्य मतभेदोंका उल्लेख व यथाशक्ति समाधान किया है। कहीं कहीं सूत्रोंमें परस्पर विरोध पाया जाता था। ऐसे स्थलोंपर टीकाकारने निर्णय करने में अपनी असमर्थता प्रकट की है और स्पष्ट कह दिया है कि इनमें कौन सूत्र है और कौन असूत्र है इसका निर्णय आगममें निपुण आचार्य करें। हम इस विषयमें कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि, हमें इसका उपदेश कुछ नहीं मिला। कहीं उन्होंने दोनों विरोधी सूत्रोंका व्याख्यान कर दिया है, यह कह कर कि ' इसका निर्णय तो चतुर्दश पूर्वधारी व केवलज्ञानी ही कर सकते हैं, किंतु वर्तमान कालमें दे हैं नहीं, और अब उनके पाससे सुनकर आये हुए भी कोई नहीं पाये जाते । अतः सूत्रोंकी प्रमाणिकता नष्ट करनेसे डरनेवाले आचार्योंको तो दोनों सूत्रोंका व्याख्यान करना चाहिये' । कहीं कहीं तो सूत्रोंपर उठाई गई शंका पर टीकाकारने यहांतक कह दिया है कि 'इस विषयकी पूछताछ गौतमसे करना चाहिये, हमने तो यहां उनका अभिप्राय कहा है। सूत्रविरोधका कहीं कहीं ऐसा कहकर भी उन्होंने समाधान किया है कि 'यह विरोध तो सत्य है किंतु एकान्तग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि, वह विरोध सूत्रोंका नहीं है, किंतु इन सूत्रोंके उपसंग्रहकर्ता आचार्य सकल श्रुतके ज्ञाता न होनेसे उनके द्वारा विरोध आ जाना संभव है । इससे वीरसेन स्वामीका यह मत जाना जाता है कि सूत्रोंमें पाठ-भेदादि परंपरागत - १ केसु वि सुत्तपोत्थपसु पुरिसवेदस्संतरं छम्मासा । धवला अ. ३४५. केसु वि सुत्तपोत्थपसु उवल भइ, तदो एत्थ उवएसं लघृण वत्तव्यं । धवला. अ. ५९१. केसु वि सुत्तपोत्थपसु विदियमद्धमस्सिदूण परूविद-अप्पाबहुअभावादो। धवला अ. १२०६. केसु वि सुत्तपोत्थरसु एसो पाठो । धवला अ. १२४३ २ तदो तेहि मुत्तेहि एदेसि मुत्ताणं विराहो होदि त्ति भाणदे जदि एवं उवदेसं लक्षुण इदं सुत्त इदं चासुत्तमिदि आगम-णिउणा भणतु, ण च अम्हे एस्थ वोत्तुं समत्था अलद्धोवदेसत्तादो । धवला. अ. ५६३. ३ होदु णाम तुम्हेहि वुत्तत्थस्स सच्चत्तं, बहुएम सुत्तेसु वणफदीणं उवरि णिगोदपदस्स अणुवलंभादो। xx चोदसपुव्वधरो केवलणाणी वा, ण च वट्टमाणकाले ते अस्थि । ण च तेसिं पासे सोदूणागदा वि संपहि उवलब्भंति । तदो थप्पं काऊण वे वि सुत्ताणि सुत्तासायण-भीरूहि आयरिएहि वक्खाणेयव्वाणि | धवला. अ. ५६७. ४ सुत्ते वणप्फदिसण्णा किण्ण णिहिट्ठा? गोदमो एत्थ पुच्छेयव्यो । अम्हेहि गोदमो बादरणिगोदपदिटिदाणं वणफदिसण्णं णेच्छदि त्ति तस्स अभिप्पाओ कहिओ। धवला. अ. ५६७ ५ कसायपाहुडसुत्तेणेदं सुत्तं विरुज्झदि त्ति वुत्ते सच्चं विरुज्झइ किंतु पयंतगगहो एत्थ ण कायव्वोxx कथं सुत्ताणं विरोहो? ण, सुत्तोवसंधाराणमसयलसुद-धारयाइरियपरतंताणं विरोह-संभव-दसणादो। धवला. अ. ५८९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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